बीते दिनों की बात हुई, जे जीबय से खेलय फाग..

राजेश कुमार, सुपौल: वसंत पंचमी बाद शाम ढलते ही गांव के टोले-टोले से उठने वाली ढोलक की थाप और फगुआ के बोल कहीं गुम से हो गए हैं। गांव-घरों में अब ना तो इसे गाने वाले रहे और ना ही बजाने वाले। अगर हैं भी तो उन्हें इतनी फुरसत कहां कि वे इतने लंबे समय तक गाने-बजाने में लगे रहें। जिदगी के भागमभाग का असर पर्व-त्योहारों पर भी दिखने लगा है। अन्यथा कहा तो यह जाता था कि जे जीबय से खेलय फाग।

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उमंगों का त्योहार है होली
दरअसल होली को उमंगों का त्योहार माना जाता है। इस उमंग में यह कहां देखा जाता था कि जो साज बजा रहे हैं उन्हें बजाना आता है या नहीं। मानना था कि फगुआ का ढोल तो कोई बजा सकता है, गाने का सुर कोई भी हो सिर्फ उसमें फगुनाहट झलकनी चाहिए। कर्णपुर के प्रदीप कुमार झा बताते हैं कि गांवों में अब होली से एक-दो दिन पहले कहीं-कहीं होली गाई जाती है जबकि दस साल पहले तक शाम होते ही इसकी महफिल जम जाती थी। हर टोले में अलग-अलग मंडली बैठती थी और फाग का गायन होता था। कटैया के सहदेव मंडल कहते हैं कि वसंत पंचमी से अबीर लगाने की शुरुआत होते ही होली शुरू हो जाती थी। भले ही रंग-अबीर होली के दिन खेला जाता था लेकिन फगुआ गायन तो इसके बाद से ही शुरू हो जाता था। कहा कि अब तो बसों और ऑटो में यात्रा के दौरान होली के गीत सुनने को मिलते हैं। ऐसे गीत सुनना नहीं पड़े वही अच्छा। भोजपुरी में गाए गए गीतों के बोल इतने द्विअर्थी होते हैं कि सुनकर खीझ होने लगती है। कई गीत तो अश्लीलता की हद को पार कर जाते हैं। जबकि पहले के गीतों में सीता-राम, राधा-कृष्ण के द्वारा होली खेले जाने की कल्पना कर गीतों को लयबद्ध किया जाता था। लोग एक जगह बैठकर गाते-बजाते थे जिससे लोगों का आपसी बैर भी खत्म हो जाता था।

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कहते हैं लोक गायक
निर्मली के सुखदेव साह, कटैया के नथुनी मंडल, देवराम चौधरी, सरयुग कामत, किशोर यादव का कहना है कि अब पहले वाली बात नहीं रही। पहले फगुआ गाने के बहाने गांवों में भाईचारा, एकजुटता और आपसी सौहार्द को बल मिलता था। लोग होली के एक सप्ताह पूर्व से ही चौपाल में एकत्रित होकर फाग गीत गाते थे। अब इनकी जगह भोजपुरी व फिल्मी गीतों ने ले ली है। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो रहे लोग खासकर युवा वर्ग को तो अब फाग सुहाता ही नहीं है।
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पुरुष नर्तकी के वेश में बोलते जोगीरा
कई वृद्ध लोग बताते हैं कि होली के एक सप्ताह पूर्व से ही जोगीरा के लिए पुरुष का चयन कर नर्तकी के वेश में रखा जाता था। जो फगुआ गायकों के बीच उनके बोल पर नाचते थे और जोगीरा सुनाते थे।
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फाग के गीतों में होता था हास्य-व्यंग्य का पुट
चानन लाल यादव, बलदेव मंडल आदि बताते हैं कि फाग गीतों में पति-पत्नी, देवर-भाभी के रिश्तों में हास्य के पुट दिए जाते थे। जैसे अबकी न जाए देव सइंया के फगुनवा में, आज बिरज में होली के रसिया आदि गीतों की धूम रहती थी। वह समय था जब लोगों की टोली दरवाजे-दरवाजे घूम-घूम कर फगुआ गाते हुए आपस में गले मिलते थे। अब तो समय के साथ इसका स्वरूप ही बदला-बदला सा नजर आ रहा है।
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