नहीं है खेल का मैदान कुंठित हो रही प्रतिभाएं

-अधिकांश विद्यालयों में नहीं है खेल का मैदान

-कहीं अतिक्रमित है मैदान तो कहीं खेलने लायक नहीं
जागरण संवाददाता, सुपौल : स्कूल सरकारी हो या निजी कुछ को छोड़ दें तो ज्यादातर में खेल गतिविधियों पर ग्रहण लगा है। एक तरफ सरकार ने स्कूलों में खेल मैदान की अनिवार्यता का मापदंड बना रखा है। शारीरिक शिक्षकों के पद भी सृजित कर रखे हैं। हर वर्ष खेलकूद प्रतियोगिताएं भी होती है लेकिन जिले में स्थिति ऐसी है कि अधिकांश स्कूलों के पास खेल मैदान नहीं है। मैदान के अभाव में बच्चों की खेल प्रतिभाएं कुंठित हो जाती है। खासकर प्रारंभिक विद्यालयों में तो खेल की स्थिति बदतर है। 1702 प्रारंभिक विद्यालय वाले सुपौल जिले में खेल की स्थिति संसाधनों की कमी की भेंट चढ़ी हुई है। सबसे अधिक स्कूलों में खेल मैदान की कमी खेल की दिशा में बाधक है। जिन स्कूलों को भवन नहीं था वहां नये भवन बनाए गए। जहां जगह का अभाव था वहां अतिरिक्त कक्ष बनाए गए लेकिन सरकार की तमाम आधारभूत संरचना कहीं न कहीं खेल मैदान को ही खत्म किया। स्कूलों का खेल मैदान सुरक्षित रहे इस पर शासन-प्रशासन का ध्यान ही नहीं गया। परिणाम है कि आज अधिकांश प्रारंभिक विद्यालयों में खेल महज एक खानापूर्ति बनकर रह गया है। जिस विद्यालय को मैदान है अधिकतर या तो वह अतिक्रमित है या फिर देखरेख के अभाव में मैदान खेलने लायक ही नहीं बच पाया है। कमोवेश उच्च विद्यालयों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। कहने को तो जिले के अधिकांश विद्यालयों में खेल के मैदान हैं लेकिन खेल शिक्षक या फिर संसाधनों का अभाव बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधक बना हुआ है। सरकार ने उच्च शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए पंचायत स्तर पर उच्च विद्यालयों की स्थापना तो की, परंतु इन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे खेल के क्षेत्र में भी आगे बढ़े इसका ख्याल नहीं रखा गया। अधिकांश विद्यालयों के पास खेल का मैदान है ही नहीं। ऐसे में बच्चे पढ़ाई तो कर लेते हैं परंतु मैदान के अभाव में उसका सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। अब तो विद्यालयों खेल की घंटी भी नहीं बजती है। इधर धन का अभाव भी बच्चों के खेल में बाधक बना रहता है। बढ़ती महंगाई के साथ खेल सामग्री के दाम भी बढ़े हैं। खेल मद में सीमित राशि खर्च करने की बाध्यता के कारण बच्चों को पर्याप्त खेल सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती है। इसका सीधा असर बच्चों के खेल पर पड़ता है।
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