बाबू कुंवर सिंह की जीत ने तोड़ा अंग्रेजों के अपराजय होने का दंभ

बाबू कुंवर सिंह की जीत ने तोड़ा अंग्रेजों के अपराजय होने का दंभ

कंचन किशोर, आरा : 1857 के गदर की जब बात होती है, तो बाबू कुंवर सिंह के शौर्य और पराक्रम याद कर आज भी भुजाएं फड़कने लगती है। आजादी की पहली लड़ाई को कई वर्षों तक इतिहासकारों के एक वर्ग ने सिपाही विद्रोह का नाम देकर इसकी गौरव को कुंद करने का प्रयास किया। जबकि, 1757 में भारत में स्थापित अंग्रेजी साम्राज्य के साै साल बाद यह पहली क्रांति थी, जिसमें बाबू कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को हरा उनके अपराजय होने के दंभ को चूर किया था। आज भी जगदीशपुर आने पर ऐसा लगता है जैसे कि उज्जैनियां सल्तनत की शान और वैभव सामने आकर खड़ा हो गया हो।

कुंवर सिंह ने 80 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध तलवार म्यान से खींचकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। उन्होंने अंग्रेजों से कई लड़ाइयां लड़ी और हर बार उन्हें परास्त किया। 24 जुलाई 1857 को दानापुर कैंट के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और जगदीशपुर की ओर कूच किया। इस क्रांतिकारी सेना ने जगदीशपुर पहुंचकर कुंवर सिंह को अपना नेता स्वीकार कर लिया। कुंवर सिंह के नेतृत्व में इस सेना ने सबसे पहले आरा पहुंचकर खजाने पर कब्जा कर लिया। इस बगावत को दबाने के लिए दानापुर से अंग्रेज अफसर डनवर की सेना आरा के लिए बढ़ी। 29 जुलाई 1857 को आरा में भीषण संघर्ष हुआ और डनवर अपने पांच सौ से ज्यादा सिपाहियों के साथ मारा गया। इसके बाद दो अगस्त 1857 को मेजर आयर बड़ी फौज लेकर पहुंचा और बीबीगंज के निकट कुंवर सिंह की सेना से उसका सामना हुआ। संख्या बल कम होने के कारण बाबू कुंवर सिंह रणनीति के तहत कुछ सैनिकों के साथ गंगा पार कर बलिया की ओर निकल गए। वहां उन्होंने अपनी सेना को मजबूत किया। 17 अप्रैल 1858 को वापस जगदीशपुर पर कब्जे के लिए कुंवर सिंह बलिया से नौका से शिवपुर घाट पार कर रहे थे, तब अंग्रेज के सैनिक वहां पहुंच गए और गंगा तट से फायरिंग करने लगे। इसी में एक गोली कुंवर सिंह के दाहिने हाथ में लगी। शरीर में विष न फैले इस सोच के तहत कुंवर सिंह ने अपने बाएं हाथ से दाहिने हाथ को काटकर गंगा को समर्पित कर दिया और उसी हालत में जगदीशपुर पर हमला कर अंग्रेजों पर टूट पड़े। लीग्रेन्ड और उसकी सेना को हराकर 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह ने अपना पताका फहराया। हालांकि, शरीर में जख्म का जहर फैलने के कारण तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई।
जगदीशपुर के रोम-रोम में गर्व का अहसास
जगदीशपुर किले के अंदर और आसपास कुंवर सिंह के जमाने की स्मृतियों को सहेजा गया है। पास में ही युद्ध के दौरान इस्तेमाल में लाए गए शस्त्रों और पुरातात्विक सामग्रियों को सहेजने के लिए एक संग्रहालय बना है। यहां सिक्के और शस्त्र तो हैं हीं, जगदीशपुर के सैनिकों के कवच वस्त्र और माडल के रूप में तोप भी रखे गए हैं। कुंवर सिंह के परिवार से जुड़े दिव्य विजय सिंह और कुंवर अजीत सिंह ने बताया कि इस साल देश आजादी का अमृत वर्ष मना रहा है और जगदीशपुर क रोम-रोम गर्व की अनुभूति कर रहा है।

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