पानी से बर्बाद पीढ़ियां: इस 'बीमार गांव' में इंसान तो इंसान मवेशी तक हुए दिव्यांग, मुश्किल से हो रही शादी



संजीव कुमार संजय, शिवसागर (रोहतास): जल ही जीवन है, लेकिन अगर यह जहर बन जाए तब? रोहतास जिले के सासाराम अनुमंडल अंतर्गत शिवसागर के बरुआ गांव का यही दर्द है। फ्लोराइडयुक्त पानी ने इस गांव की 12 सौ की आबादी में आठ सौ से अधिक लोगों की हड्डियां टेढ़ी कर दी है। यहां तक कि जानवर भी अपंग हो रहे हैं। गांव के लोग करीब पांच दशक से इस नारकीय जीवन को जीने के लिए अभिशप्त हैं। इसका असर गांव की सामाजिक दशा पर भी पड़ा है। आसपास के गांवों के लोग इसे ‘बीमार गांव’ के नाम से बुलाने लगे हैं। गांव में कोई स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं है।

'बीमार गांव' की बदनामी का दंश झेल रहे प्रखंड के नाद पंचायत के बरुआ गांव को सिस्टम की ही नजर लग गई है। यहां पर आने वालों को इंसानों व पशुओं में ही नहीं सरकारी तंत्र की दिव्यांगता भी सहज ही देखने को मिल जाएगी। ग्रामीणों के दर्जनों बार शिकायत के बाद भी इस गांव का विकास सिर्फ अधिकारियों व नेताओं के दौरे और निरीक्षण तक ही सिमट कर रह गया है। गांव की बदहाली सरकार द्वारा संचालित तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं को मुंह चिढ़ाती दिखती है।
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जहर बने जल ने पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया है। दोनों पैर से लाचार ग्रामीण रामराज प्रसाद हों या दांत की बीमारी से परेशान डब्लू बिंद, या फिर एक हाथ से दिव्यांग जानकी देवी, सबका जीवन नर्क बन गया है। जानकी के बच्चे भी जन्मजात दिव्यांग हैं। बीमारी के कारण गांव में 60-70 वर्ष की आयु बड़ी बात है। सर्वदर्शन कुमार एवं अन्य ने बताया कि गांव में पशु भी दिव्यांग पैदा होते हैं। लोग 40-50 साल की कम उम्र में भी मरते रहे हैं। गांव में अब शादी मुश्किल हो गई है, क्योंकि कोई यहां अपनी बेटी नहीं ब्याहना चाहता। समर्थ लोग गांव छोड़कर शहरों या दूसरे गांवों में पलायन कर रहे हैं, लेकिन गरीब कहां जाएं?
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बुजुर्ग दिव्यांग रामराज बिंद बताते हैं कि आसपास के लोग इसे ‘बीमार गांव’ कहते हैं। एक तो यहां शादी मुश्किल से होती है, दूसरा यह कि घर की बहुएं भी मानसिक रोगी बनती रहीं हैं। गांव में पांच दर्जन से अधिक लोग मानसिक रोगी हैं, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार प्रति लीटर पानी में फ्लोराइड की मात्रा डेढ़ मिलीग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि, यहां का पानी मानक से 10 गुना अधिक खराब है। गांव में चालू चार चापाकल भी फ्लोराइड वाला पानी ही देते हैं। श्रीकृष्ण ओझा बताते हैं कि वर्ष 1990 में तत्कालीन एसडीओ की पहल पर कराई गई जल की जांच रिपोर्ट में इसे जानवरों के भी पीने लायक नहीं बताया गया था। इसके दो दशक बाद 2011 में वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया लेकिन वह भी तीन साल बाद ही बंद हो गया। हर घर नल का जल योजना से ग्रामीणों में शुद्ध पानी की उम्मीद जगी थी। एक पानी टंकी भी लगाई गई, लेकिन उसमें फ्लोराइड ट्रीटमेंट की व्यवस्था नहीं है।
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‘अधिक फ्लोराइड वाले पेयजल से दंत व अस्थि दिव्यांगता के साथ-साथ लिगामेंट्स व स्पाइनल कार्ड तथा चमड़े आदि की बीमारियां भी होती हैं। बरुआ में फ्लोराइड युक्त जल के कारण दिव्यांगता की जानकारी नहीं थी। चिकित्सकों को भेज कर जांच व इलाज की व्यवस्था की जाएगी।’
-डा. केएन तिवारी (सिविल सर्जन, रोहतास)
‘फ्लोराइड की अधिकता से दांतों की गड़बड़ी के साथ-साथ हड्डियां टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं। आठ वर्ष की उम्र के बाद बच्चों के दांतों पर इसका प्रभाव दिखता है। अस्थि दिव्यांगता का खतरा रहता है। गर्दन, पीठ, घुटने, कंधे के जोड़ों व हड्डियों पर अधिक असर दिखता है।’
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-डा. रवि कीर्ति (मेडिसीन विभागाध्यक्ष, एम्स पटना)
‘फ्लोराइड की अधिकता से लिगामेंट एवं हड्डियों में कैल्शियम की मात्रा बढ़ती है। इससे जोड़ों का लचीलापन कम होता है। जोड़ खराब और हड्डियां टेढ़ी हो जाती हैं। रीढ़ की हड्डी पर भी प्रभाव पड़ता है। इससे हाथ-पैर में सूनापन या लकवा की आशंका बढ़ जाती है।’
-डा. रीतेश रूनु (अस्थि रोग विशेषज्ञ, आइजीआइएमएस पटना)



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