फिर संकट में फंसे मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूर

सहरसा। बंधुआ मजदूरों के रूप में अपनी जिदगी बर्बाद कर रहे लोगों को सरकारी मदद नहीं मिलने से दोबारा शोषण की चक्की में पिसने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के दौरान दिल्ली समेत कई जगहों पर ऐसे लोग आज पैसे और साधन के अभाव में फंसे हुए हैं। वहां से वापस आने के लिए इनलोगों के पास राशि नहीं है। उपर से लॉकडाउन के दौरान जिनलोगों से कर्ज लेकर गुजारा किया, वे बिना चुकता किए वापस जाने देने के लिए भी तैयार नहीं है। दिल्ली के नागलोई में फंसे ये सभी मुक्त बंधुआ मजदूर एक तरह से पुन: बंधक बने हुए हैं। इनके परिवार के लोग बेहद ही चितित हैं।
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पुनर्वास नहीं मिल पाने से रोजी के लिए भटकने को हैं मजबूर
वर्ष 2005 से अबतक विभिन्न प्रांतों में बंधुआ मजदूर के रूप में कार्य रहे सहरसा जिले के 384 लोगों को मुक्त कराया गया है। इनमें में कुछ को पुनर्वास की राशि मिली और कुछ मुक्ति प्रमाण पत्र रहने के बावजूद इससे भी वंचित है। इनलोगों को सहायता राशि के अलावा आवास, सामाजिक सुरक्षा पेंशन और जीने के लिए कई अन्य सुविधाएं भी घोषित हैं, परंतु शासन-प्रशासन की लापरवाही के कारण लाभ नहीं मिल सका। फलस्वरूप जिदगी जीने के लिए मुक्त बंधुआ मजदूर विभिन्न प्रांतों में भटक रहे हैं। नांगलोई राजधानी पार्क नई दिल्ली में इलाके के सैकड़ों मजदूर फंसे हैं, जिसमें कई मुक्त बंधुआ मजदूर भी हैं। ये सब वही बंधुआ मजदूर हैं, जिन्हें 2005 में इलाहाबाद के विभिन्न उद्योगों से मुक्त कराया गया था।
क्या कहते हैं परिजन
बेहटा मोहनपुर सोनवर्षा के राम सादा कहते हैं कि उनका पुत्र इलाहाबाद से बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया था। अभी दिल्ली में मजदूरी करता है। वहां परिवार के साथ रहता है। लॉकडाउन के दौरान फंस गया है। आने के लिए प्रवासियों से भी टिकट की मांग की जा रही है, जिससे उनका पुत्र पैसे के अभाव में आने के लिए तड़प रहा है। मनोज सादा के पिता हरिलाल सादा कहते हैं कि एक तो आने के लिए पैसा नहीं है, उपर से लॉकडाउन के दौरान हजारों कर्ज हो गया। अगर इसका चुकता नहीं होगा,तो वे लोग पुन: बंधुआ बनने के लिए लाचार हो सकता है। इरशाद के पिता मो. अल्लाउद्दीन का कहना है कि लॉकडाउन में उनलोगों के समक्ष जीने का संकट हो गया है, कोई कर्ज देने के लिए भी तैयार नहीं है। ऐसे में बेटे के कर्ज चुकता करने और आने के लिए खर्च कहां से भेज पाएंगे। इनसभी परिवारों की निगाहें सरकार पर टिकी है। बचपन बचाओ आंदोलन के प्रदेश पुनर्वास संयोजक घुरण महतो कहते हैं, कि अगर इन मुक्त बंधुआ मजदूरों को प्रावधान के अनुसार सरकारी सहायता मिलती, तो ये लोग यहीं कोई रोजगार कर सकते थे। ऐसा नहीं होने से रोजी के लिए भटक रहे दर्जनों मुक्त बंधुआ मजदूर जहां-तहां फंसे हैं। अगर सरकार की नजर इनपर नहीं जाएगी, तो ये लोग इसी तरह जहां-तहां बंधुआ बनकर पिसते रहेंगे।
Posted By: Jagran
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