मीनू मसानी : जिनसे आज के विपक्षी नेता बहुत कुछ सीख सकते हैं

1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के कपाट खोलने का सेहरा नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के सिर बांधा गया. लेकिन इन दोनों से पहले, शायद सबसे पहले, जिसने इसकी चौखट पर सर पटक-पटककर यह कोशिश की वे थे मिनोचर 'मीनू' रुस्तम मसानी. साधारण वकील से लेकर गांधी विरोधी और फिर गांधी अनुयायी बनना, कांग्रेस से टूटकर भी मुद्दों पर जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी का समर्थन करना और समाजवादी होकर भी समाजवाद की धज्जियां उड़ाना उनकी शख्सियत के दिलचस्प पहलू हैं. बहुतों को हैरानी होगी और कुछ पत्थर उठा लेंगे, जब उन्हें मालूम होगा कि उस दौर में खुली अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा झंडाबरदार गांधी से प्रेरित था!

रूसी क्रांति से इश्क़ और मोह भंग
मीनू मसानी की पृष्ठभूमि पारसी थी और जड़ें गुजरात में. उनकी जीवनी लिखने वाले एसवी राजू बताते हैं कि 1925 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स से क़ानून की पढ़ाई के दौरान मीनू मसानी की मुलाकात जवाहर लाल नेहरू और वीके कृष्ण मेनन से हुई. इस दौर में समाजवाद अपने शैशव में था, सो सुंदर था. मसानी की ख़ुद बयानी है कि एक बार लंदन में उनके पिता के दोस्त और टोरी पार्टी के एक सदस्य ने उन्हें अपने घर खाने पर बुलाया. बातचीत में उन्होंने मसानी से पूछा कि उनकी राजनैतिक सोच क्या है. 21 साल के मसानी ने पलक झपकाए बिना कहा- समाजवाद. जवाब सुनकर उस अंग्रेज़ ने कहा, '21 साल की उम्र पर अगर समाजवादी सोच है तो तुम्हारे पास दिल है. 41 की उम्र पर भी समाजवाद ही नज़रिया है तो ये जान लेना कि तुम्हारे पास दिमाग नहीं है.' तब दिल था. रुसी क्रांति थी. सर्वहारा ही विश्वविजेता माना जा रहा था. यह इत्तेफ़ाक ही कहा जाएगा कि 41 की उम्र में उन्होंने 'सोशलिज्म रीकंसीडर्ज' (समाजवाद एक पुनर्विचार) नाम की क़िताब लिखकर इस विचारधारा से किनारा कर लिया.
पढ़ाई पूरी कर मीनू मसानी कांग्रेस पार्टी के एक धड़े, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए. इसमें जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, आचार्य नरेंद्र देव आदि थे. 1935 में सोवियत रूस का दौरा उनकी जिंदगी में तूफ़ान ले आया. जिस रूस को लेकर इन्हें इतनी आशाएं थीं वे वहां सर्वहारा के हाल देखकर धराशायी हो गयीं. स्टालिन के दमन चक्र ने इन्हें झकझोर दिया और 1939 के आते-आते उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी.
कई साल बाद, 1956 में एक लेख में साम्यवाद का विरोध करने के नज़रिए का ख़ुलासा करते हुए उन्होंने लिखा कि लोकतंत्र में चाहे तमाम ख़ामियां हों पर वे इसके समर्थक इसलिए रहेंगे क्योंकि इसमें चुनने की आज़ादी है.उनका कहना था, 'लोकतंत्र और साम्यवाद में अंतर यह है कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को दबाया नहीं जाता. देर-सवेर ही सही, लोकतंत्र में ग़लत सही हो जाता है.
मसानी-समाजवाद-गांधी
मीनू मसानी समाजवादी थे पर गांधी समर्थक नहीं. एसवी राजू लिखते हैं, '1934 में मसानी एक दफ़ा गांधी के साथ 10 दिनों के लिए उड़ीसा की यात्रा पर गए. उनके पिता ने शायद इस मुलाक़ात का इंतेज़ाम किया था. वे इसलिए राज़ी हुए कि उन्हें लगा गांधी की आर्थिक नीतियों को उनकी ही नज़र में ग़लत साबित करने का यह सही मौका है. आख़िरकार, देश आज़ाद होने को था. आर्थिक नीतियों का निर्धारण ज़रूरी था.'
अपनी यात्रा के दौरान, गांधी उनसे दिन में दो-दो घंटे तक चर्चा करते. एक बार उन्होंने गांधी से उद्योग जगत में सरकार के दख़ल के बारे में पूछा. गांधी ने कहा कि सरकार कंपनियां चलाए, यह बात उनको ठीक नहीं लगती. उनकी नज़र में इसे कामगारों की ट्रस्टीशिप द्वारा चलाया जाना चाहिए.
एसवी राजू लिखते हैं कि मसानी को गांधी के समाजवादी विचार सुनकर हंसी आ गयी. गांधी उन्हें अनपढ़ नज़र आये. उस वक़्त भारत में मौजूद राजशाही को लेकर गांधी ने उन्हें बताया कि इसके ख़त्म होने से ज़्यादा ज़रूरी है कि इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में ढाला जाए. उत्पाद, वितरण और विनिमय के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे को गांधी व्यावहारिक नहीं मानते थे. उन्होंने मसानी को कहा कि रवींद्रनाथ टैगोर उत्पाद का शानदार नमूना हैं, क्या उनका राष्ट्रीयकरण किया जा सकता है? विदेश व्यापार पर सरकार के एकाधिकार को लेकर गांधी ने उनसे कहा कि सरकार के पास पहले से काफ़ी अधिकार हैं, और देने से नुकसान होगा.
मीनू मसानी ने जब कांग्रेस से अलग होकर राजगोपालाचारी के साथ स्वतंत्र पार्टी बनाई तो गांधी की विचारधारा के इर्दगिर्द ही इसका मैनिफ़ेस्टो तय हुआ था. आपको याद दिला दें कि स्वतंत्र पार्टी के गठन पर कई मौज़ूदा राजे-रजवाड़े पार्टी के साथ खड़े हुए थे. बात यहीं ख़त्म नहीं होती. 1955 में मसानी एक बार यूगोस्लाविया गए. उन्हें बताया गया कि वहां कंपनियां कामगारों के ट्रस्टीशिप द्वारा ही चलाई जाती हैं. यह सुनकर वे सन्न रह गए! उन्हें याद आ गया कि गांधी ने 20 साल पहले उनसे इस सिद्धांत की बात की थी.
अर्थव्यवस्था और उदारवाद
1947 में मीनू मसानी ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा दी. इसमें अति सीमित राष्ट्रीयकरण, सरकार द्वारा कुछ उद्योगों पर नियंत्रण और निजी उद्योगों के साथ-साथ पनपने की परिकल्पना की गई थी. मसानी ने कई क़िताबें लिखी हैं. 'कांग्रेस मिसरूल एंड स्वतंत्र अल्टरनेटिव' में उदारवाद और समाजवाद के सिद्धान्त पर उन्होंने बेहद विचारोत्तेजक लेख लिखा है. इसमें वे समझाते हैं कि आख़िर क्यों उदारवाद एक बेहतर व्यवस्था है. मसानी एक बार फिर गांधी के सिद्धान्त का हवाला देते हैं जिनकी नजर में लक्ष्य और उसकी प्राप्ति का रास्ता दोनों ही महत्वपूर्ण थे.अपने लेख में मीनू मसानी लिखते हैं कि बेहतर समाज तभी बनेगा जब बनाने के तरीक़े साफ़-सुथरे होंगे. उनके मुताबिक समाजवाद में कामगार का शोषण होता है, संपत्ति सत्ताधीश के हाथों में सिमटकर रह जाती है और समानता का अधिकार नहीं रहता. मसानी का मानना था कि ऐसे में समाज तरक्की नहीं कर सकता.
तत्कालीन सोवियत रूस का उदाहरण देते हुए मीनू मसानी लिखा है, 'सामूहिक ज़िम्मेदारी का नतीजा यह है कि वहां कृषि और उद्योग बेहद धीमी रफ़्तार से बढ़े हैं. काला बाज़ारी सरेआम है. ज़ाहिर है समाजवाद वहां संपन्नता लाने में विफल रहा. यही हाल भारत का है.' आगे वे नेहरू पर कटाक्ष करते हैं. वे लिखते हैं कि नेहरू काठमांडू जाकर कहते हैं कि जिन देशों में ग़रीबी है वहां समाजवाद ने दरिद्रता को और बढ़ाया है लेकिन भारत के सन्दर्भ में वे यह बात भूल जाते हैं.
समाजवाद पर प्रहार करते हुए मीनू मसानी लिखते हैं, 'जब सरकार समस्त उद्योगों पर नियंत्रण करके तमाम रोज़गार पैदा करेगी, फिर उसका विरोध कौन करेगा? उदारवाद में स्वायत्तशासी ताक़तें समानता लाती हैं.' स्वायत्तशासी ताक़तों से उनका मतलब निजी उद्योगों, निजी व्यापार, स्वरोज़गार, काश्तकारी आदि से था. लाइसेंस राज देश में भ्रष्टाचार फैला रहा है, यह कहने वाले मसानी ही थे. खुली अर्थव्यवस्था पर उनके विचार थे कि ग्राहक राजा है और वही उत्पाद और मात्रा तय करेगा. मांग और आपूर्ति की लोच और वस्तु की दर निर्धारित करेगा, न कि सरकार. उनका माना था कि सरकार अगर आर्थिक आज़ादी छीन लेगी तो लोकतांत्रिक आजादी का हनन भी तय है. 1967 में लिखी अपनी क़िताब में उन्होंने समाजवाद और साम्यावाद के ख़त्म होने की भविष्यवाणी कर दी थी, जो बीसवीं शताब्दी के अंत में सोवियत रूस के विघटन के रूप में सच साबित हुई.
मसानी और संसदीय आदर्श
विपक्ष में होने पर हर हाल में सरकार का विरोध मीनू मसानी की नज़र में ग़लत था. जब इंदिरा गांधी ने रूपये के अवमूल्यन का प्रस्ताव संसद में रखा तो विपक्ष इसके ख़िलाफ़ था. मसानी ने कोई भी स्टैंड लेने से पहले अर्थशास्त्रियों की राय ली और इंदिरा का समर्थन किया. वे नेहरू के मुखर विरोधी थे. इसके बावजूद संसद के आदर्शों पर दोनों एकमत थे. मसानी कभी भी लोकसभा अध्यक्ष की ओर पीठ करके सदन से बाहर नहीं गए.
रामचंद्र गुहा 'इंडिया आफ़्टर गांधी' में लिखते हैं कि नेहरू कश्मीर मुद्दे को लेकर शेख़ अब्दुल्ला के साथ बातचीत पर अपनी ही पार्टी और जनसंघ द्वारा घेर लिए गए थे. तब मीनू मसानी ने राजगोपालाचारी को तार भेजकर नेहरू को समर्थन देने का सुझाव दिया ताकि कश्मीर जैसे जटिल मुद्दे का हल निकल सके. गुहा आगे लिखते हैं कि जब शेख़ अब्दुल्ला रावलपिंडी (पाकिस्तान) गए तो मसानी ने कभी भारत में पाक उच्चायुक्त रहे एके ब्रोही को ख़त लिखकर अग्राह किया कि वे पाक राष्ट्रपति अयूब खान को शेख़ अब्दुल्ला से सार्थक बातचीत करने के लिए मनाएं.
मीनू मसानी सांसदों द्वारा अपना वेतन बढ़ाये जाने और प्रश्न काल में तय वक़्त से ज़्यादा बोलने के सख्त ख़िलाफ़ थे. 1959 से लेकर 1970 तक वही संसद में वित्त बिल पर बहस की शुरुआत करते थे और उन्हें बोलते हुए देखने के लिए संसद हाल की दर्शकदीर्घा खचाखच भर जाया करती थी. आप उनके कद का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते हैं कि 1967 से लेकर 1969 तक वे पब्लिक एकाउंट्स कमेटी (लोक लेखा समिति) के चेयरमैन थे. संक्षेप में बता दें कि ये समिति ही संसद में सरकार के ख़र्च और आमदनी का लेखा-जोखा लेती है.
कुल मिलाकर कहा जाए तो मीनू मसानी एक बहुमुखी व्यक्तित्व थे. वक़ालत की तरह ही उनका राजनैतिक जीवन बहुत सफल नहीं कहा जा सकता. पर बात यह भी सच है कि आदर्शों पर चलने पर दुनियावी मामलों में असफलता की गुंजाइश कुछ ज़्यादा बढ़ जाती है. मसानी इसके अपवाद नहीं थे.

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