4000 से ज्यादा गाने लिखने वाला गीतकार, जो आठ मिनट में लिख देता था गाना

आनंद बख्शी के पिता रावलपिंडी में बैंक मैनेजर थे। किशोरावस्था में ही आनंद टेलीफोन ऑपरेटर बनकर सेना में शामिल हो गए थे। लेकिन बम्बई और सिनेमा की दुनिया में आने की ख्वाहिश ने उन्हें इससे बांधे रखा। बंटवारा हुआ तो बक्शी साहब का परिवार शरणार्थी बनकर हिन्दुस्तान आ गया। जब मायानगरी में कुछ ना हुआ तो आनंद बख्शी ने फिर से सेना ज्वाइन कर ली और कुछ समय तक वहीं काम करते रहे।

तीन वर्ष सेना में नौकरी करने के बाद उन्होंने तय किया कि उनकी जिंदगी का मकसद बंदूक चलाना नहीं गीत लिखना है। उन्हें पहली बार गीत लिखने का मौका 1957 में मिला लेकिन सफलता उनसे दामन चुराती रही। 1963 में अभिनेता और निर्देशक राज कपूर ने उन्हें अपनी फिल्म 'मेंहदीं लगे मेरे हाथ' के लिए गीत लिखने का अवसर दिया। उसके बाद सफलता ने कभी आनंद बख्शी का साथ नहीं छोड़ा।
आनंद बक्शी के करियर का शुरुआती माइलस्टोन बनी ‘आराधना’, ‘अमर प्रेम’ और ‘कटी पतंग’ जैसी फिल्में, जिनके कांधे चढ़कर राजेश खन्ना भारतीय सिनेमा के पहले सुपरस्टार बने। आनंद बक्शी ने फिल्मकारों की कई पीढ़ियों के साथ काम किया। उनकी सबसे बड़ी खूबी ये थी कि समय के साथ उनके गीतों का लहजा बदलता रहा। आराधना, कटी पतंग, शोले, अमर अकबर एंथनी, हरे रामा हरे कृष्णा, कर्मा, खलनायक, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, ताल, गदर-एक प्रेमकथा जैसी फिल्मों के गीत उनकी कलम से लिखकर अमर हो गए। 
वर्ष 1965 में 'जब जब फूल खिले' प्रदर्शित हुयी तो उन्हे उनके गाने 'परदेसियों से न अंखियां मिलाना' 'ये समां.. समां है ये प्यार का' ,' एक था गुल और एक थी बुलबुल' सुपरहिट रहे और गीतकार के रूप में उनकी पहचान बन गई। आनंद बख्शी वो नाम है जिसके बिना म्यूजिकल फिल्मों को शायद वो सफलता नहीं मिलती जिनको बनाने वाले गर्व करते हैं। इनका नाम उन गीतकारों में शुमार हैं, जिन्होंने साल दर साल एक से बढ़कर एक गीत फिल्म इंडस्ट्री को दिए हैं। एक साक्षात्कार में मशहूर संगीतकार लक्ष्मीकांत ने कहा था कि जहां दूसरे गीतकार गीत लिखने के लिए सात-आठ दिन ले लेते हैं वहीं आनंद बख्शी आठ मिनट में गाना लिख देते हैं। 30 मार्च, 2002 को 72 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। लेकिन उनके लिखे गाने आज भी आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा हैं।

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