आनन्द बख़्शी : जिनके इन सुपरहिट गानों से बने कई 'सुपर स्टार' व 'शो-मैन'

कलम का जादूगर थे आनंद बख़्शी

कई कलाकार व फिल्मकार को दी नयी पहचान
'एक अजनबी हसीना से' 'जादू तेरी नजर' और 'इलू इलू' कहते कहते 'मेरे सपनों की रानी' से 'मेहंदी लगा के रखना' कहने वाला अब 'तुझे देखा तो ये जाना सनम' व 'हम बने तुम बने एक दूजे के लिए' गाने लगा था। फिर 'चिट्ठी न कोई संदेश' व 'मेरे महबूब कयामत होगी' की बात कहकर 'दर्दे दिल दर्दे जिगर दिल में जगाया' व 'कुछ तो लोग कहेंगे' जैसी बात को दरकिनार कर 'पन्ना की तमन्ना' रखने लगा। फिर वह 'कांची रे कांची रे प्रीत मेरी सांची' और 'ड्रीम गर्ल : किसी शायर की गजल' बनाने के लिए 'कोरा कागज था ये मन मेरा' और अब 'याद आ रही है..तेरी याद आ रही है' कहने लगा था, तो उसको उसी तरह का रिस्पांस भी मिला और कहा गया कि 'हो गया है तुझको तो प्यार सजना' और 'प्यार दीवाना होता है'। इसके बाद 'चार दिनों का प्यार ओ रब्बा' और फिर गाने को मजबूर होते हैं 'जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा' व 'ये जीवन है..इस जीवन का' और कहते हैं 'शीशा हो या दिल हो टूट जाता है'। 'चांद सी महबूबा' का ख्वाब देखने वाला 'चिंगारी कोई भड़के' कहकर 'मैं शायर तो नहीं' कहने लगता है। साथ में 'लगी आज सावन की फिर वो झड़ी' को दिखाकर 'चलो बुलावा आया है' की याद दिलाता है और 'अच्छा तो अब हम चलते हैं' कहकर चल देता है। तभी तो आज भी 'हम तुम युग युग से गीत मिलन के' गा रहे हैं।
इतने परिचय से से आप पहचान गए होंगे कि हम बात कर रहे हैं भारतीय फिल्म जगत में अपने गीतों से मील का पत्थर बनने वाले आनन्द बख़्शी की। एक ऐसा फनकार जिसने अपने गीतों से कई गानों को चार चांद लगाने के साथ साथ कई स्टारों को सुपर स्टार व कई निर्माता व निर्देशकों को भी बड़ी पहचान दिलाने में मदद की। 4 हजार से अधिक गाने, 40 बार फिल्म फेयर में नामांकन और चार बार विजेता रहे इस कलम के जादूगर ने 1956 की 'बड़ा आदमी' से लेकर 2000 की 'मोहब्बतें' तक सुपर हिट्स फिल्मों व गानों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिससे आपको रूबरू कराने की कोशिश करते हैं। इससे आपको आनन्द बख़्शी के फन का अंदाजा हो पाएगा। लोग आज भी कहते हैं कि मजरूह सुल्तानपुरी के साथ-साथ केवल आनन्द बख़्शी ही एकमात्र ऐसे गीतकार हैं, जिन्होंने चार दशकों से भी अधिक समय तक लगातार एक के बाद एक सुन्दर और मनमोहक गीत लिखे, जिन्हें आज भी गुनगुनाने का मन करता है।
बताया जाता है कि 21 जुलाई सन् 1930 को रावलपिण्डी में जन्मे आनंद बख्‍़शी ने बचपन से ही एक सपना देखा करते थे कि बम्बई (मुम्बई) जाकर प्लेबैक गायक बनना है। अपने इसी सपने को पूरा करने के शौक में दौड़ते-भागते वे बम्बई आ गये। उन्होंने अजीविका के लिए नेवी की एक नौकरी भी ज्वाइन कर ली। समय बीतता रहा कई जगह हाथ पैर मारे नौकरी पकड़ी भी और छोड़ते भी रहे। इसी बीच भारत-पाकिस्तान बंटवारा हुआ और वह लखनऊ में अपने घर आ गये। यहां वह टेलीफोन ऑपरेटर का काम कर तो रहे थे लेकिन गायक बनने का सपना उनकी आंखों से उतरता ही नहीं था। इसीलिए एक बार फिर वह बम्बई के लिए निकल पड़े।
बम्बई जैसे शहर ने कई लोगों को पहले ठोकरें व फिर शोहरत दी है। यही आनंद बख्‍़शी के साथ भी हुआ और दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे। यहां भी उनके दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह फिर से अपना भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी' के लिए गीतकार ढूंढ़ रहे थे। फिर क्या था उनके जीवन में वह घड़ी आ गयी, जिसका उन्हें इंतजार था। भगवान दादा ने आनंद बख्‍़शी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। गीत लिखे जरूर पर फिल्म न चली।
गीतकार बनने के लिए संघर्ष का सिलसिला जारी ही था कि अचानक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेंहदी लगी मेरे हाथ' और 'जब-जब फूल खिले' पर्दे पर आ गयी और फिर इनका जादू चलना शुरू हो गया। उनकी मेहनत रंग लाने लगी और लोगों ने गाना शुरू कर दिया कि 'परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना' और 'यह समा है प्यार का'।
इसके बाद तो फ़िल्म 'मिलन' के आते आते 1967 में नामी गिरामी गीतकारों में गिने जाने लगे। अब लोग 'सावन का महीना', 'बोल गोरी बोल', 'राम करे ऐसा हो जाये', 'मैं तो दीवाना' और 'हम-तुम युग-युग' गीत लिखने वाले को खोजने लगे थे।
एक दौर ऐसा भी
कहते हैं इनके फिल्मी सफर में एक दौर ऐसा भी आया जब गीतकार आनंद बख्‍़शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़ (1967)', 'दो रास्ते (1969)', 'बॉबी (1973'), 'अमर अकबर एन्थोनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' को बुलंदियों पर पहुंचाया तो वहीं राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग (1970)', 'अमर प्रेम (1971)', हरे रामा हरे कृष्णा (1971' और 'लव स्टोरी (1981)' फ़िल्मों में गाने लिखकर अमर कर दिया। आज भी फ़िल्म 'अमर प्रेम (1971)' का 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत लोगों के दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं।
यह भी कहा जाता है कि राज कपूर की 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)'; सुभाष घई की 'कर्ज़ (1980)', 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'सौदागर(1991)', 'खलनायक(1993)', 'ताल (1999)' और 'यादें (2001)' के जरिए बड़े शो मैन रुप में स्थापित कराया तो वहीं यश चोपड़ा को 'चाँदनी (1989)', 'लम्हें (1991)', 'डर (1993)', 'दिल तो पागल है (1997)' व आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे (1995)', 'मोहब्बतें (2000)' जैसी फिल्मों से सफलता के आसमान पर पहुंचाने में अपने सदाबहारों के जरिए मदद की।

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