गृहस्थ आश्रम में पति-पत्नी के रिश्ते पवित्र

जहानाबाद : श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर के श्री स्वामी रंग रामानुजाचार्य जी महाराज इन दिनों सोशल मीडिया एवं समाचार पत्र के माध्यम से भक्तों के लिए सुयोग्य एवं अच्छी बातें बताई। उन्होंने विवाह के उद्देश्य के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि- षोडश संस्कार में गृहस्थ आश्रम के लिए विवाह एक विशेष महत्वपूर्ण संस्कार है। यह केवल काम पूर्ति के उद्देश्य से विहित नहीं है। प्रत्यूत यह मानव को सभ्य, सुसंस्कृत तथा उन्नत बनाता है। अगर यह संस्कार नहीं होता तो मानव में मां, बहन, बेटी आदि की पहचानने की शक्ति नहीं होती। वह काम लिप्सा के कारण कुत्तों,गदहों एवं अन्य तुच्छ जातियों के भांति बन जाता। वैवाहिक विधि के अनुसार प्राप्त पत्नी द्वारा ही गृहस्थ आध्यात्मिक कर्मों का अनुष्ठान में सफलता प्राप्त करता है। पिता अपनी पुत्री को देवता, गुरु तथा अग्नि को साक्षी रखकर कन्यादान करता है। और वर देवता गुरु अग्नि को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता है कि धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों के उपार्जन में पत्नी को सदा साथ रखूंगा। गृहस्थों के पत्नी के विना धार्मिक कार्य सफल नहीं होते। मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण रहते हैं। देव ऋण, ऋषि ऋण, और पितृ ऋण। यज्ञयाग, देव पूजन आदि के द्वारा देव ऋण से मुक्त होता है। वेद गीता आदि शास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषि ऋण से मुक्त होता है, तथा पुत्र उत्पादन द्वारा पितृऋण से उद्धार होता है। वैवाहिक विधि से गृहीत स्त्री से उत्पन्न पुत्र ही पितरों का उद्धार कर सकता है। उसमें ही पुत्र शब्द सार्थक होता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि पुम नाम एक नरक हैं। और जो उस पुम नाम नरक से उद्धार करता है, उसे ही पुत्र कहते हैं। अत: विवाह एक विशेष महत्वपूर्ण संस्कार है। इसे केवल काम पूर्ति के उद्देश्य न समझें।


Posted By: Jagran
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