Bihar Assembly Election : बिहार में भ्रम और सच के बीच है, वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता

पटना, अरुण अशेष । Bihar Assembly Election 2020 : चुनाव में कौन नेता किस हद तक वोट ट्रांसफर करा सकता है, बिहार के संदर्भ में देखें तो यह सवाल भ्रम और सच के बीच में झूलता नजर आएगा। खासकर महागठबंधन के दौर की राजनीति में इसका ठीक-ठीक आकलन और जटिल हो गया है, फिर भी मान लिया गया है कि कुछ राजनेताओं और दलों में वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता है। ये नेता और दल अपने समर्थकों पर नियंत्रण रखते हैं। वे चाहें जिस किसी को वोट देने के लिए कहें, समर्थक वोट दे देते हैं। यह मान्यता एक दौर में सही रही होगी, लेकिन अब इसमें मतदाताओं का अपना विवेक, उम्मीदवार की छवि और स्थानीय सामाजिक समीकरण भी प्रभावकारी कारक के तौर पर जुड़ गए हैं। यह मतदाताओं या राजनीतिक दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं के बीच उभरी नई प्रवृत्ति है। यह धारणा कमजोर हो रही है कि दल चाहे जिसे टिकट दे दे, समर्थक उसे वोट दे ही देंगे। हां, कह सकते हैं कि इन दिनों दोनों प्रवृत्तियां चुनाव के नतीजे को प्रभावित करती हैं।

नीतीश, लालू और रामविलास में है पावर
मोटे तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और लोजपा के पूर्व अध्यक्ष रामविलास पासवान में वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता मानी जाती है। उनके अलावा भाजपा और वाम दलों के समर्थकों के बारे में यह धारणा है कि वे अपने नेतृत्व और पार्टी के निर्देश के आधार पर वोट देते हैं। निर्देश का सम्मान करने वालों की संख्या के आधार पर ही तालमेल में दलों को सीटें मिलती हैं। अभी महागठबंधन और राजग में सीटों के बंटवारे को लेकर जो बातचीत चल रही है, उसमें भी वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता को आधार बनाया गया है।
विधानसभा चुनाव को माना जाता है मानक
राज्य में जब कभी इस क्षमता की चर्चा होती है, अमूमन विधानसभा के चुनाव परिणामों को ही मानक बनाया जाता है। लोकसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं। मतदाताओं का व्यवहार भी उसी से नियंत्रित होता है। हां, वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता भी दौर से नियंत्रित है। 1990 से 2000 तक के तीन विधानसभा चुनावों में से एक 1995 में लालू प्रसाद इस मोर्चे पर सबसे अधिक ताकतवर माने गए थे। 2005 के अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव से लेकर 2015 तक यह क्षमता नीतीश कुमार में आ गई। 2020 के चुनाव परिणाम के आधार पर नए सिरे से इसका निर्धारण होगा।
मिथ टूटते भी हैं
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के बारे में यह मिथ है कि उनके समर्थक उम्मीदवार का चेहरा नहीं देखते हैं। हकीकत है कि समर्थक उम्मीदवार का चेहरा खूब देखते हैं। उदाहरण 2009 का लोकसभा चुनाव है। लोजपा उम्मीदवार की हैसियत से रामविलास पासवान हाजीपुर में हार गए, जबकि राजद का पूरा समर्थन था। पराजय की व्याख्या इस रूप में की गई कि लालू प्रसाद के समर्थक इस बात से नाराज थे कि पासवान ने फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में राबड़ी देवी की सरकार बनाने में मदद क्यों नहीं की। वही रामविलास पासवान राजद के विरोध में 2014 का लोकसभा चुनाव जीते। 2019 में उनके भाई पशुपति कुमार पारस लोजपा टिकट पर जीते।
नीतीश भी हुए इसके शिकार : 2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की जोड़ी ने कांग्रेस के साथ मिलकर 243 में से 178 सीटें जीत कर राजग को तबाह कर दिया, उस समय नीतीश के गृह जिले में ही उनके अपराजेय होने का मिथ टूटा। नालंदा जिला मुख्यालय बिहारशरीफ की विधानसभा सीट पर भाजपा ने कब्जा जमा लिया, जबकि 2005 के फरवरी-अक्टूबर और 2010 के विधानसभा चुनाव में यहां जदयू की जीत हुई थी। दिलचस्प है कि इससे पहले भाजपा की जीत 1990 और 1995 में हुई थी, जब वह अकेले चुनाव मैदान में गई थी।
राजद को मिला था बड़ा लाभ
2015 के चुनाव में राजद, जदयू और कांग्रेस के बीच बड़े पैमाने पर वोट ट्रांसफर हुआ। इन दलों के रिश्ते खराब हुए तो तीनों दलों ने जीत का श्रेय अपने खाते में रख लिया, लेकिन 2010 के परिणाम के आधार पर अगर विश्लेषण हो तो जदयू की तुलना में राजद और कांग्रेस को गठबंधन का अधिक लाभ मिला था। मधुबनी, झंझारपुर, जमुई, मुंगेर, नवादा जैसी कई सीटों पर राजद की जीत हुई, जहां यह पार्टी चुनावी जीत भूल गई थी।

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