उच्च शिक्षा का सपना लिए ही बेटी विदा हो जाती ससुराल

सुपौल। सरकार द्वारा महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चलाई जा रही है, लेकिन शिक्षा के अभाव में इसका असर गांव के पिछड़े क्षेत्रों में नहीं दिखाई पड़ रहा है। 1964 में मरौना प्रखंड बना तो लोगों में आस जगी कि इस पिछड़े क्षेत्र के दिन बहुरेंगे, पर ऐसा नहीं हो सका। यहां के अधिकांश गांवों के लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से आज भी वंचित हैं।

इस क्षेत्र में एक भी डिग्री व इंटर कॉलेज नहीं है। हां, क्षेत्र के कुछ विद्यालयों को प्लस टू की मान्यता दी गई है, लेकिन पढ़ाई नहीं होती। ऐसे में बालिकाएं हाई स्कूल तक की शिक्षा किसी तरह प्राप्त तो कर लेती है, पर उच्च शिक्षा का सपना पूरा नहीं हो पाती है। यूं कहे कि इस प्रखंड की अधिकतर बेटियां अपनी पढ़ाई जारी रखने का सपना लिए ही ससुराल विदा हो जाती है।
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प्रखंड क्षेत्र में अभी भी बालिका शिक्षा की स्थिति बदतर है। बालिका शिक्षा की ओर यहां समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। एक पंचायत को छोड़ बाकी के 12 पंचायतों में एक भी बालिका विद्यालय नहीं है। जिस कारण अभी भी गांव की बेटियों के लिए शिक्षा पाना आसान नहीं है। जब किसी तरह बेटियां मैट्रिक पास कर भी जाती है तो उनके सामने कई तरह की परेशानियों के कारण वह उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती है। एक तो गरीबी, अभिभावकों की अशिक्षा, संसाधनों का अभाव दूसरा बालिका विद्यालय का न होना सहित कई परेशानियां सामने आ जाती है। संपन्न लोग तो किसी तरह बाहर रख कर अपनी बेटियों को शहर के कॉलेजों में दाखिला दिला कर पढ़ा लेते हैं, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लोग अपनी बेटियों को मध्य विद्यालय तक की शिक्षा देकर हिम्मत हार जाते हैं। मरौना की कुमारी रिचा, नीतू कुमारी, अर्चना कुमारी, बबीता, सुधा भारती, दीपिति कुमारी, राजलक्ष्मी कुमारी, पूजा कुमारी आदि कहती है कि आज भी अपनी बेटी को घर से बाहर पढ़ने के लिए अकेला नहीं छोड़ा जाता है। अभिभावक, बेटियों को बाहर रखना असुरक्षित समझते हैं। दूसरी ओर प्रखंड में बालिका उच्च विद्यालय तथा बालिका महाविद्यालय का नहीं होना भी सबसे बड़ी बाधा है। निजी विद्यालय की संचालिका सुधा कहती है कि लोग बेटी की शिक्षा का महत्व नहीं देते हैं। यहां जागरूकता का अभाव है।
Posted By: Jagran
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