निरन्तर गिरता जा रहा है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का स्तर -

इस समय मीडिया-मंचों पर फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या और उसमें उनकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती की भूमिका गूंज रही है। यह अ़फसोस की बात है कि सुशांत-रिया प्रकरण को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने एक तरह का सर्कस बना दिया है। एक अदृश्य कठघरा बना हुआ है जिसमें रिया को खड़ा कर दिया गया है, और उस पर तरह-तरह के इलज़ाम कुछ इस अंदाज़ से लगाये जा रहे हैं जैसे कि उसके ़िखलाफ अपराध साबित हो गया हो। रिया अपराधी भी हो सकती हैं, और पूरी तरह से या आंशिक रूप से बेकसूर भी, लेकिन, यह तय करने का काम मीडिया का नहीं है। मीडिया का काम सूचना देना है, और सूचनाओं का विश्लेषण करना भी है। हो यह रहा है कि विश्लेषण के नाम पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हर मोड़ पर मूल्य-निर्णय कर रहा है। क्या ठीक है, क्या नहीं है, कौन ज़िम्मेदार है, कौन नहीं। भारत के ़खबरिया चैनलों की यह घोर ज़्यादती दिन-रात जारी है।  ऐसा प्रतीत होता है कि इस टीवी-सर्कस में इन चैनलों के दर्शक भी शामिल हो गए हैं। वे केवल ़खबरों के उपभोक्ता-भर नहीं हैं, बल्कि वे भी टीवी पर च़ीख-चिल्ला रहे एंकर की भांति चाहते हैं कि सुशांत की ‘आत्महत्या’ किसी न किसी तरह ‘हत्या’ साबित हो जाए, और उसकी तोहमत या उसके लिए की जाने वाली साज़िश की तोहमत रिया के ऊपर लगे। साफ दिख रहा है कि एंकर और दर्शक आपस में मिल कर एकमेक हो रहे हैं। सरेआम एक मुकद्दमा चल रहा है जिसमें न जज है, न वकील। केवल एक या कुछ अभियुक्त हैं जिन्हें फैसला दिया जाने से पहले ही जनता की नज़रों में दोषी करार दिया जा रहा है। हो सकता है कि अंत में ऐसा ही हो, लेकिन ऐसा न होने की संभावना भी है। अगर, ऐसा न हुआ तो क्या यह मीडिया रिया चक्रवर्ती की छवि खराब करने का दोषी स्वयं को मानेगा? क्या उसके भीतर आत्मालोचना और ऊहापोह की लहर दौड़ेगी? क्या वह उस अदृश्य कठघरे को हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट कर देगा जिसमें उसने इस अभिनेत्री को खड़ा किया हुआ है? अगर रिया दोषी निकली तो क्या इसका श्रेय टीवी-मीडिया को जाएगा? ज़ाहिर है कि उस समय ये ़खबरिया चैनल अपनी पीठ खुद ही ठोकते हुए दावा करेंगे कि देखो-देखो, हमने तो पहले ही कहा था। दरअसल, रिया दोषी हो या निर्दोष, दोनों ही हालतों में उसका श्रेय पुलिस, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और नारकोटिक्स ब्यूरो को दिया जाना चाहिए। मीडिया के किसी भी मंच को यह श्रेय लेने का अधिकार न कभी था, न कभी होगा। ़खबरिया चैनलों के इस रवैये की तुलना अगर अ़खबारी मीडिया से की जाए, तो दोनों के बीच का अंतर साफ नज़र आ जाता है। समाचार पत्रों ने इस प्रश्न पर पारम्परिक ढंग से सूचनाएं देने और उनका निष्पक्ष विश्लेषण करने का रवैया अपनाया है। इस विश्लेषण में वे जांच एजेंसियों द्वारा दी जाने वाली सूचनाओं पर भरोसा करते नज़र आते हैं। दोनों तरह के मीडिया के बीच का यह अंतर दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। यहां एक बात कहने योग्य है कि अ़खबारी पत्रकारिता ने शुरुआती दौर में टीवी-पत्रकारिता से सीखने की प्रवृत्ति दिखाई थी। 2010 के आसपास टीवी-पत्रकारिता के ‘प्राइम टाइम’ की बहसों के आगमन से अ़खबारों को लगा था कि वे पीछे छूट जाएंगे, अगर उन्होंने सुस्त गति से की जाने अपनी पत्रकारिता का दामन छोड़ कर अपने कॉलमों में कुछ नयी बात पैदा नहीं की। कारण स्पष्ट था। टीवी न केवल बहसों के ज़रिये अधिक जीवंत राजनीतिक विमर्श पैदा करता हुआ दिख रहा था, बल्कि वह आज की ़खबर आज ही दिखा देने की क्षमता से सम्पन्न था, जबकि अ़खबार आज की ़खबर अपने पाठकों तक कल ही पहुंचा सकते थे। दूसरे, अ़खबारी विश्लेषण पढ़ने के लिए समाचार पत्र को एक बौद्धिक रूप से सक्रिय मानस वाले पाठक की ज़रूरत थी। इस तरह के पाठक हर जगह आम तौर पर कम ही होते हैं। लेकिन, टीवी पर परोसी जा रही ़खबरों और उसके इर्द-गिर्द किये जाने वाले दृश्यात्मक त़फसिरे के दर्शकों के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी। यहां तक कि टीवी दर्शक के लिए साक्षर होना तक ज़रूरी नहीं है। दोनों तरह के मीडियाओं के उपभोक्ताओं के बीच का यह अंतर अ़खबारों को और चुस्त-दुरुस्त करने की तरफ ले गया। यह उनके अस्तित्व का सवाल था। 2010 के बाद अ़खबारों के पहले पन्ने ऐसी ़खबरें देने लगे जिन तक टीवी पत्रकारों की पहुंच नहीं हो सकती थी। नतीजा यह निकला कि अक्सर टीवी को अ़खबारों में छपी ़खबरों के इर्द-गिर्द अपने कार्यक्रम आयोजित करने पड़े। इस का परिणाम यह निकला कि टीवी की दर्शक-संख्या तो बढ़ी, लेकिन अ़खबारों की पाठक-संख्या कम नहीं हुई। इस मौके पर यह टिप्पणी करनी भी ज़रूरी है कि अ़खबारों ने तो टीवी से सीख कर अपनी गुणवत्ता बढ़ा ली, लेकिन टीवी ने अ़खबारों से सीखने से इन्कार कर दिया। वे एक दूसरे ही रास्ते पर चल निकले। उनके कार्यक्रम उत्तरोत्तर इकतऱफा होते चले गए। कुछ चैनल सरकार के संकोचहीन समर्थक बन कर उभर आए (मोदी-समर्थन के कारण इन्हें ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है)। अपनी सरकारपरस्ती को उचित ठहराने के लिए उन्होंने राष्ट्रवाद, देशभक्ति, पाकिस्तान-चीन विरोध की आड़ ली। कुछ चैनल हर बात में सरकार की आलोचना करने लगे (ऐसे चैनल गिने-चुने ही हैं)। इन दोनों के बीच खड़े चैनल भी हैं, जो निष्पक्ष दिखते हुए सरकार का समर्थन करने की कोशिश करते हैं। अ़खबारों में सम्पादकीय विभाग की रोज़ाना की बैठक दोपहर के बाद और शाम से ठीक पहले होती है। इसमें तय होता है कि अगले दिन आने वाला अ़खबार किस तरह से बनेगा लेकिन टीवी चैनलों में यह बैठक दोपहर से पहले ही हो जाती है। सम्पादकों की मदद से टीवी एंकर दिन भर योजना बनाते हैं कि वे शाम को अपना कार्यक्रम किस कोण से पेश करेंगे। कोई कुछ भी तर्क देता रहे, एंकर पहले से तय करके बैठते हैं कि उन्हें क्या नतीजा निकालना है। उसी के मुताबिक बहस करने वाले मेहमान बुलाए जाते हैं। बहस निष्पक्ष लगे, इसलिए एक या दो ऐसे मेहमानों को भी निमंत्रण दे दिया जाता है जो टीवी की राय के विरोध में बोलने वाले हों। टीवी-पत्रकारिता के मूलत: दो मॉडल प्रचलित हैं। एक है एंकर आधारित मॉडल, जिसमें मशहूर हो चुके एंकर की हस्ती पूरी तरह से हावी रहती है। एक तरह से वही एंकर अपने कार्यक्रम की विषयवस्तु और मेहमानों की सूची तय करता है। वही अपने कार्यक्रम का ‘इंट्रो’ लिखता है। अपने कार्यक्रम की लोकप्रियता या अलोकप्रियता का ज़िम्मेदार भी वही होता है। दूसरा मॉडल कुछ ऐसा है जिसमें एंकर को उसके कार्यक्रम की लाइन और प्लेट दोनों तैयारशुदा हालत में सजा कर थमा दी जाती है, और उसका काम केवल प्रस्तुति का होता है। उसके कान में लगा हुआ ‘टॉकबैक’ लगातर उसे सम्पादकीय विभाग की तरफ से निर्देश देता रहता है कि उसे कब, क्या और किससे पूछना है। ़खास बात यह है कि किसी भी सनसऩीखेज या राजनीतिक महत्व वाले सवाल पर किये जाने वाले कार्यक्रमों में ़फैसला देने की प्रवृत्ति कम या ज़्यादा दोनों मॉडलों में पाई जाती है। यह अलग बात है कि इस रवैये के कारण गम्भीर और समझदार दर्शकों में ़खबरिया चैनलों की साख गिरती जा रही है। स्क्रीन पर चल रहे कोलाहल ने भले ही कुछ एंकरों को सुपरस्टार बना दिया हो, लेकिन इस मीडिया-मंच की गम्भीरता पर एक स्थायी प्रश्न चिन्ह लग चुका है। 

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