सीमांचल को साधने में कितना कारगर होगी विरासत की राजनीति

अमितेष, किशनगंज : सीमांचल के गांधी कहे जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री मु. तस्लीमउद्दीन व किशगनंज के सांसद रहे मौलाना असरारूल हक कासमी के निधन के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है। लगभग चार दशक बाद पहला ऐसा मौका है जब महागठबंधन के धुरी रहे दोनों दिग्गज चुनावी समर से गायब हैं। दोनों दिग्गजों के निधन के बाद उभरे शून्य को पाटना राजद व कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। इन दोनों दिग्गजों के अंगुली पकड़कर राजनीति का ककहरा सीखने वाले अब महागबंधन के सूत्रधार बने हैं। वहीं विरासत की राजनीति को आगे बढ़ाकर दोनों दिग्गजों की भरपाई करने की कोशिश की जा रही है। अब देखना दिलचस्प होगा कि महागठबंधन की यह रणनीति सीमांचल को साधने में कितना कारगर साबित होती है।


महागठबंधन के सबसे बड़े घटक दल राजद की बात करें तो सीमांचल में 2015 के विधानसभा चुनाव तक मु. तस्लीमउद्दीन प्रमुख चेहरा थे। उनके निधन के बाद एक शून्यता उभरी, जिसका असर गत लोकसभा चुनाव में भी स्पष्ट दिखा। विरासत के तौर पर देखें तो मु. तस्लीमउद्दीन के रहते ही उनके पुत्र सरफराज आलम चार दफे विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। उनके निधन के बाद 2018 के लोकसभा चुनाव में सरफराज सांसद बने तो छोटे भाई जोकीहाट से विधायक चुने गए। इस बार भी दोनों भाईयों के चुनाव लड़ने की संभावना है। अब मु. तस्लीमउद्दीन जैसे दिग्गज को शिकस्त देकर लगातार दो बार किशनगंज के सांसद रहे मौलाना असरारूल हक कासमी के पुत्र मौलाना सऊद असरार नदवी को राजद ने ठाकुरगंज से मैदान में उतारा है। कुल मिलाकर दोनों दिग्गजों के विरासत के सहारे सीमांचल को साधने और कोर वोटर को मथने की रणनीति बनाई गई है।
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विरासत को आगे बढ़ाकर संसद पहुंचे डॉ. जावेद आजाद
- कांग्रेस के दिग्गज रहे मो. हुसैन आजाद किशगनंज व ठाकुरगंज से छह दफे विधायक रहे थे। 1962 में किशगनंज से विधायक चुने जाने के बाद एक तरह से कांग्रेस का प्रमुख चेहरा बन चुके थे। 1969-90 के बीच पांच बार ठाकुरगंज का प्रतिनिधित्व करने वाले मु. हुसैन आजाद के पुत्र डॉ. जावेद आजाद ने भी विरासत की राजनीति को आगे बढ़ाया। पारंपरिक सीट ठाकुरगंज से दो बार और किशनगंज से दो बार विधायक चुने गए। फिर 2019 में किशनगंज से सांसद बने। विरासत की राजनीति को न सिर्फ आगे बढ़ाया बल्कि कांग्रेस को बिहार में एकमात्र सीट पर जीत दिलाने में कामयाब भी रहे।
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