राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम को दी जाएगी रफ्तार

पूर्णिया। राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत 18 वर्ष तक के बच्चों और किशोरों में किसी भी प्रकार की बीमारी हो तो सरकार उसका पूरा उपचार करवाती है। इसमें मुख्य रूप से बच्चों को जन्म के समय की बीमारी का पता लगाकर उसका उपचार किया जाता है। कोरोना महामारी के दौरान कार्यक्रम भी प्रभावित हुआ है। अपर मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी डॉ. एसके वर्मा ने बताया कार्यक्रम को रफ्तार दी जा रही है। जन्मजात बीमारी से पीड़ित बच्चों की नियमित स्क्रीनिग, पहचान, फोलोअप, उपचार और आवश्यकता हुई तो रेफर भी किया जाता है। कार्यक्रम को वापस पटरी पर लाने का निर्देश दिया गया है।

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जन्मजात रोग के कारण 10 फीसदी मौत
शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. राजेश कुमार ने बताया कि डब्लूएचओ के आंकड़े के मुताबिक 100 में से 6-7 बच्चों जन्म संबंधी विकार से ग्रस्त होते हैं। नवजातों में दस फीसद बच्चों की मृत्यु इस कारण से हो जाती है।
समय पर पहचान से इस बीमारी में मौत की दर को काफी कम किया जा सकता है। इसके साथ ही विकलांगता से भी बचाव संभव है। बच्चों में कुछ रोग बेहद आम होते हैं। दांत, ह्रदय और श्वसन संबंधी रोग की पहचान समय पर कर ली जाए तो इलाज संभव है। आंकड़े के मुताबिक आरबीएसके दलों के द्वारा 33002 बच्चों का स्वास्थ्य जांच किया गया था और 1853 बच्चों को रेफर किया गया। जिला से बाहर चिकित्सा के लिए 3 बच्चों को जन्मजात हृदय में छेद के ऑपरेशन के लिए पटना रेफर किया गया था। यह आंकड़ा पिछले वर्ष के दिसंबर माह में जारी किया गया था। इस वर्ष में कोरोना महामारी के कारण यह प्रक्रिया धीमी हो गई थी। कुछ समय ओपीडी का संचालन भी बंद रहा है। आरबीएसके दल भी क्षेत्र में भ्रमण नहीं कर रहे थे।
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सिविल सर्जन डॉ. उमेश शर्मा ने बताया कि अतिकुपोषित बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण कर सदर अस्पताल स्थित पोषण पुनर्वास केंद्र में भेजने का निर्देश दिये गया है। दरअसल एनआरसी में भी कुपोषित बच्चों को रेफर नहीं किया जा रहा है यही कारण है कि यहां पर भर्ती दर 40 फीसद से भी कम है। सिविल सर्जन ने कार्यक्रम समन्वयक को इस दर को बढ़ाने का निर्देश दिया है। इसके लिए ओपीडी के दौरान बच्चों की स्क्रीनिग की जाती है। उसमें चिह्नित बच्चों को अस्पताल में उपचार किया जाता है। अगर बच्चे का उपचार स्थानीय अस्पताल में संभव नहीं है तो उसे उच्च मेडिकल संस्थान में भी रेफर किया जाता है। पहचान के बाद बच्चे का नियमित फोलोअप भी होता है।
कैसे होती है पहचान
पहचान के लिए नवजात शिशु के लिए स्वास्थ्य केंद्रों में नवजातों की जांच की सुविधा उपलब्ध रहती है। जन्म के छह सप्ताह तक के बच्चों के लिए आशा कार्यकर्ता घर-घर जाकर जांच करती हैं।
6 सप्ताह से 6 वर्ष तक के बच्चों के लिए आरबीएसके दल के मोबाइल स्वास्थ्य टीम आंगनबाड़ी केंद्रों में पहुंच कर जांच करती है। 6 वर्ष से 18 वर्ष तक के बच्चों के लिए यही टीम सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों में जांच करती है।

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