अरवल की तकदीर लिखेंगे 39 तक के वोटर

अरवल। नक्सल प्रभावित अरवल जिले की तकदीर सिर्फ 39 वर्ष तक युवा वोटर ही लिखने के लिए काफी हैं। जिले के कुल मतदाताओं का 55 फीसद हिस्सेदारी 18 से 39 वर्ष के बीच का है। ये युवा वोटर चाह लें तो जिले के अरवल और कुर्था विधानसभा क्षेत्र में चुनाव का रुख मोड़ने के लिए काफी है।

निर्वाचन आयोग के आंकड़े के अनुसार अरवल जिले में करीब 7301 वोटर ऐसे हैं जिसकी उम्र 80 वर्षो से अधिक हो चुकी है। उम्र की शताब्दी देख चुके करीब 242 मतदाता हैं। हालांकि मतदान के दिन तक यह संख्या बदल सकती है। आंकड़े के अनुसार करीब 55025 मतदाता ऐसे हैं जिनकी उम्र 60 से अधिक और 80 साल से कम है। निर्वाचन आयोग इस बार वृद्ध, बीमार और दिव्यांग वोटर को घर-घर पोस्टल बैलेट भेज रहा है। 21 अक्टूबर तक यहां पीडब्ल्यूडी श्रेणी के मतदाता पोस्टल बैलेट से अपना वोट दे सकेंगे। बीएलओ, आंगनबाड़ी सेविका, जीविका दीदी और टोला सेवक इस कार्य में सहयोग कर रहे हैं।

अरवल जिले की कुल मतदाता 5.04 लाख से अधिक हैं। इसमें 2.76 लाख मतदाता सिर्फ 18 से 39 वर्ष के बीच हैं। 40 से 59 साल के बीच कुछ मतदाताओं की संख्या मात्र 1.65 लाख है। करीब 55 हजार वोटर 60 से 79 वर्ष के बीच के हैं। मतदान केंद्रों पर युवा वोटर एकजुट होकर मतदान कर दें तो अरवल जिले का नतीजा उनके मनमाफिक हो सकेगा। ये युवा वोटर किस मुद्दे पर मतदान को एकजुट होंगे स्थिति उम्मीदवारों को भी पता नहीं चल पा रहा है।
अरवल जिले की सीमा पश्चिम में सोन नद और भोजपुर का सहार क्षेत्र पड़ता है। पूरब में जहानाबाद, उत्तर में पटना जिला और दक्षिण में औरंगाबाद और गया जिले की सीमा मिलती है। कृषि को छोड़कर यहां कोई रोजी-रोटी का साधन नहीं है। सोन नद के किनारे बालू का खनन और हरी सब्जी की खेती नकद आय का साधन बचा है। उद्योग और कारखाने नहीं होने के पीछे रेल संपर्क से दूर रहना भी माना जाता है।
-- रोमांचक होता अरवल के नतीजे --
अरवल जिले के चुनावी नतीजे बड़ा रोमांच भरा रहा है। आजादी के बाद समाजवादी विचार धारा के गुदानी सिंह यादव विधायक बने लेकिन 1957 और 62 में कांग्रेस के बुद्धन मेहता को प्रतिनिधित्व का मौका मिला। सन् 1967 और 69 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एस. जोहर चुनाव जीते। 1972 में निर्दलीय रंगबहादुर सिंह जीते और 1977 की कांग्रेस विरोधी लहर के बाद दोबारा मौका नहीं मिला। यहां सबसे लंबे समय तक निर्दलीय कृष्णनंदन सिंह को प्रतिनिधित्व का रिकार्ड बनाने का मौका मिला। 1980, 85 और 90 में निर्दलीय जीते। 1995 में राजद के रवींद्र सिंह ने खाता खोला तो 2000 में अखिलेश प्रसाद सिंह को राजद से ही जीत हासिल हुई। 2005 में लोजपा के दुलारचंद यादव, तो 2010 में भाजपा का पहली बार कमल खिला। वर्तमान में राजद के हाथ में यह सीट है।
-- कुर्था विधानसभा --
कुर्था विधान सभा क्षेत्र समाजवाद का गढ़ रहा है। 1957 से अब तक कांग्रेस को सिर्फ दो बार मौका मिला। वर्तमान में इस सीट पर लगातार दूसरी बार जदयू की जीत हुई है। सन् 1995 में निर्दलीय नागमणि से यह सीट जनता दल और राजद ने छीन लिया तो लोजपा ने 2005 में कब्जा जमा लिया। बाद में यह सीट एनडीए के खाते से जदयू के पास है। यहां प्रजातांत्रिक समाजवादी पाटी और शोषित समाज दल के बीच लड़ाई रहा है। इसमें दो बार कांग्रेस और एक बार निर्दलीय को मौका मिला।
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