स्वदेशी आंदोलन के बचपन से समर्थक थे देशरत्न

आज देश में स्वदेशी आंदोलन का खूब प्रचार प्रसार किया जा रहा है। पर बचपन से ही देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद व उनके बड़े भाई स्वतंत्रता सेनानी महेंद्र बाबू में कूट-कूट कर स्वदेशी प्रेम भरा हुआ था। वे दोनों भाई स्वदेशी कपड़ा ही नहीं कलम और जरूरत की सभी वस्तुएं भी स्वदेशी ही खरीदते थे। बताते हैं कि 1899 ई. में महेंद्र बाबू इलाहाबाद से घर आये थे। उन्होंने स्वदेशी की बात कही थी व स्वदेशी कपड़े भी साथ लाये थे। राजेंद्र बाबू ने उसी समय से स्वदेशी कपड़ा पहनना शुरू कर दिया था। जीरादेई क्षेत्र के राजेंद्र बाबू के अनुयायी डीपी पांडेय ने कहा कि आज भी हमें देशी वस्तुओं का इस्तेमाल कर हस्तकला एवम शिल्प कला का बढ़ावा देना चाहिए। समाजसेवी सह व्यापर मंडल के अध्यक्ष चंद्रशेखर सिंह ने कहा कि स्वदेशी समान का प्रयोग कर हम अपनी देश की आर्थिक सुधार की कड़ी में सहयोग कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि राजेंद्र बाबू के आदर्शों से ही प्रेरणा लेकर देश में परिवर्तन द्वारा स्वदेशी कपड़ों व अन्य चीजों का निर्माण हो रहा है। इससे खास कर महिलाओं की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है।

जयंती के बाद भुला दिए जाते हैं देशरत्न
जिले सहित पैतृक आवास पर तीन दिसम्बर को काफी धूमधाम से उनकी जयन्ती जिला प्रशासन जनप्रतिनिधियों द्वारा मनायी जाती है। जयंती की तिथि समाप्त होते ही उनको भुला दिया जाता है। सरकार के नुमाईंदों द्वारा बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन कोई भी काम धरातल पर नहीं होता है। सरकार तथा जनप्रतिनिधियो के रैवैया से स्थानीय लोगों मे काफी आक्रोश है। जेपी सेनानी महात्मा भाई ने कहा कि केंद्र सरकार तथा राज्य सरकार बाबू के जन्मस्थली का उपयोग केवल वोट बैंक के लिए करती है। योजनाओं का घोषणा कर यहां के लोगो को छलने का कार्य किया जाता है।
परिवार से बढ़कर राष्ट्रहित को सर्वोच्च महत्व दिया
सूबे में आज जहां भाई भतीजावाद की सियासत हो रही है, वही जीरादेई की धरती ने ऐसा नायक पैदा किया जिन्होंने राष्ट्र हित को परिवार से बढ़कर माना। वह महान सपूत गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद थे। जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए न्योछावर कर दिया। धन्य है वह माता पिता जिन्होंने देश को ऐसा पारस दिया, जिनका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। जिस इतिहास को स्मरण कर क्षेत्र वासी अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इस महान विभूति के जन्म तीन दिसंबर 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गांव में हुआ था।
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राजेन्द्र बाबू को हस्तकरघा वस्त्र से था अगाध लगाव व प्रेम
इतिहास
जमालहाता के कारीगरों के बनाए वस्त्रों को पहनते थे
जमालहाता जाकर हस्तकरघा बुनकरों का बढ़ाया हौसला
हुसैनगंज/सीवान। हिन्दुस्तान संवाददाता
भारतीय वस्त्र के इतिहास में हस्तकरघा वस्त्र का अपना विशेष महत्व रहा है। यह महत्व सर्वथा एतिहासिक कहा जा सकता है। देश की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने खादी के महत्व को जानकर उसे स्वराज से जोड़ा था। तत्कालीन परिवेश चरखा-करघा विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। महात्मा गांधी ने इसे स्वयं अपनाया था। इसी से खादी के महत्व को आंका जा सकता है। स्वराज का प्रश्न बनी खादी व खादी वस्त्रों में हथकरघा उसका अनिवार्य अभिन्न अंग बना। हस्तकरघा वस्त्र एक सशक्त हथियार स्वराज के लिए बन गया। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी हस्तकरघा के वस्त्र को ही पसंद करते थे। वेर्स्टन पोशाक की जगह हस्तकरघा वस्त्र के प्रति उनका अगाध लगाव था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ने वाले राजेन्द्र बाबू का हस्तकरघा के प्रति अगाध लगाव व प्रेम का ही परिणाम था कि बिहार के सीवान जिला स्थित जमालहाता बुनकरों के बीच पहुंच गए। राजेन्द्र बाबू रंग-बिरंगे धागों से निर्मित वस्त्रों को देखने के बाद प्रसन्नचित हो उठे। हस्तकरघा उद्योग से जुड़े कर्मियों की हौसला अफजाई करते हुए वस्त्रों को खरीदे भी। प्रो. तौहिद अंसारी ने बताया कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी राजेन्द्र बाबू हस्तकरघा वस्त्र को नहीं भूले। उनकी पसंद के वस्त्र जमालहाता के विशेष कारीगरों द्वारा बनाए गए होते थे, जिसे वह बड़े चाव से पहनते थे। राष्ट्रपति बनने के बाद इस उद्योग के विकास व समृद्धि के लिए राजेन्द्र बाबू ने मोबाइल वैन मुहैया कराई थी। गाड़ी खराब होने पर पैसा भी राष्ट्रपति भवन से भेजते थे। बाबू ने उद्यमियों से कहा था कि सिर और कंधे पर रखकर वस्त्र नहीं बेचें। अजीम शखिसयत के धनी राजेन्द्र बाबू हस्तकरघा वस्त्र के महत्व को समझते थे। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों के दुख-दर्द को समझे।
बापू के जीरादेई आने पर दिया हस्तकरघा वस्त्र
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में राजेन्द्र बाबू हस्तकरघा के महत्व को समझ चुके थे। सीवान सेंट्रल को-ऑपरेटिव बैंक के निदेशक प्रो. तोहिद अंसारी ने बताया कि 1942 में महात्मा गांधी जीरादेई आए तो राजेन्द्र बाबू ने जमालहाता के विशेष बुनकरों के बनाए गए कपड़े को बापू को दिया था। हस्तकरघा वस्त्र को स्वीकार करते हुए बापू ने कहा था कि जब-तक देशवासियों के शरीर पर वस्त्र नहीं हो जाता ऐसा ही वस्त्र धारण करता रहूंगा।

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