कोरोना ने नाच पार्टियों का निकाला दिवाला, रंगमंचों पर लगा ताला

हिदी रंगमंच दिवस

-अधिकांश जगहों पर खत्म हुई नाटकों की परंपरा, आर्केस्ट्रा का होता आयोजन
-ग्रामीण स्तर पर नाच पार्टियां संजो रहीं विरासत में मिली कला की विधा
राजेश कुमार, सुपौल : नाटक की पुरानी परंपरा अब खत्म सी हो गई है और रंगमंच का स्वरूप बदल गया है। कभी दुर्गा पूजा के अवसर पर गांवों और शहरों में नाटक मंचन होता था। इसके लिए नाट्य कला परिषद गठित थी, जिसके जिम्मे नाटक का संचालन होता था। अब यह परंपरा लगभग हर जगह बंद हो गई है। इनमें से कई जगहों पर अब आर्केस्ट्रा का आयोजन होता है। ग्रामीण स्तर पर विरासत में मिली कला की विधाओं को संजोने वाली नाच पार्टियों का कोरोना ने दिवाला निकाल दिया और रंगमंचों पर ताला सा जड़ गया।

--------------------------------------
प्रसिद्ध थे कई गांवों के नाटक
जिला मुख्यालय सहित वीणा बभनगामा, बरुआरी, बरैल आदि स्थानों पर नाटक का आयोजन होता था, जिसे देखने लोग दूर-दूर से आते थे। नाटक के दौरान दर्शकों के मनोरंजन और नाटक के दृश्य तैयार करने के दौरान रंगमंच खाली नहीं रहे इसके लिए नाच-गाने की व्यवस्था की जाती थी। इसमें नाच पार्टियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। इन्हें तय रकम देकर नाट्य कला परिषद अपने कार्यक्रमों में बुलाती थी। इनकी सबसे अधिक व्यस्तता दशहरा के मेले में रहती थी। कोरोना के कारण मेला लगाने पर प्रतिबंध लगते ही क्षेत्र की नाच पार्टियां बेरोजगार हो गई। नतीजा हुआ कि रोजगार की तलाश में इन्हें परदेश का रुख करना पड़ा।
--------------------------------------------------- लोकगाथाओं को संजीवनी दे रही नाच पार्टियां
विस्मृति के गर्त में समा रही लोकगाथाओं को अगर कोई संजीवनी देने का काम रही है तो इसमें नाच पार्टियों की भूमिका अहम है। यह पार्टियां लोकगाथाओं को भी नाटक के शक्ल में प्रस्तुत करती हैं। एक-एक आदमी इस प्रस्तुति में कई किरदार की भूमिका में नजर आते हैं। दरअसल लोकगाथाओं की लिखित दस्तावेज का अभाव है। जानकार बताते हैं कि यह ऐसी विधा है जिसे लोग एक दूसरे से सुनकर अपने तरीके से गाते और सुनाते हैं। इसलिए इसका स्वरूप भी जगह-जगह बदलता रहता है। तमाम बातों के बाद भी इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आल्हा-उलद, शीत-बसंत, राजा सलहेश आदि नाच जब शुरू होता है रातभर देखने के बाद भी दूसरे दिन दोपहर तक लोग उठने का नाम नहीं लेते। शहर से लेकर गांव तक दशहरा के बाद से मेले का सिलसिला शुरू हो जाता था, जिसमें जगह-जगह नाच का कार्यक्रम होता था। मेला में भीड़ जमा करने का यह एक बहुत बड़ा जरिया था। नाच के लिए अग्रिम बुकिग होती थी कितु बीते साल में मेले को कोरोना की नजर लग गई। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन पर रोक के कारण रंगमंच खाली रहे।
शॉर्ट मे जानें सभी बड़ी खबरें और पायें ई-पेपर,ऑडियो न्यूज़,और अन्य सर्विस, डाउनलोड जागरण ऐप

अन्य समाचार