सहेज लो हर बूंद::::: अनुकरणीय रहा है मिथिलांचल का जल प्रबंधन का इतिहास

जागरण संवाददाता, सुपौल : मिथिलांचल को नदी मातृक देश कहा जाता है। यहां का प्राकृतिक जल प्रबंधन का इतिहास उन्नत, गौरवपूर्ण एवं अनुकरणीय रहा है। नदियां, तालाब, कुआं यहां के जन जीवन के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं। विरासत में मिली ये धरोहरें आज उपेक्षा की शिकार हैं। विकास की गति में नदी के साथ जीने की पद्धति दब गई। देखरेख व संरक्षण के अभाव में तालाब की दशा भी चिताजनक है। शुद्ध पेयजल के रूप में कुएं का महत्वपूर्ण स्थान रहा। कुआं भी समय की मार झेलता विलुप्त सा होता जा रहा है। आज पूरे विश्व में जल संकट गहराता जा रहा है। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जल, विवाद का मुद्दा बनता जा रहा है। जल को अपने मुनाफा का बड़ा साधन मानकर पानी व शीतल पेय बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां जल श्रोतों पर कब्जा जमाने की कोशिश में है। वहीं दूसरी ओर जल श्रोतों के संरक्षण व संव‌र्द्धन की आवश्यकता है। हमें अपने पारंपरिक जलश्रोतों को सहेजने की, उसके प्रति जागरूक होने की जरूरत है।

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------------------------------------------- तालाब खुदवाने से बढ़ती थी सामाजिक प्रतिष्ठा
तालाब खुदवाना पहले आन और शान की बात समझी जाती थी। इससे सामाजिक प्रतिष्ठा में इजाफा होता था। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और कम पड़ती जमीन ने पोखरों को भी अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया। निजी पोखरों की हालत हुई कि उसके इर्द-गिर्द के जमीनों के भाव आसमान छूने लगे। एक तो शहरों में बसने की ख्वाहिश और उपर से जमीन की भागती कीमतों का लोभ पोखरों को लीलने लगा। पहले आक्रमण पोखर के किनारा पर हुआ और धीरे-धीरे पूरा तालाब बसावट में बदला जाने लगा। वहीं दूसरी ओर शहरों की स्थिति है कि शहर के बाहर जहां कहीं भी जलाशय है, वहीं कचरे का फेंका जाना शुरू हो गया। या फिर पूरे शहर का गंदा पानी उसी जलाशय में छोड़ा जाने लगा। शहरीकरण के इस होड़ में जल प्रदूषण की तनिक भी चिता नहीं की गई।
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