कहानी सिलिकन वैली के एक सीईओ की, जो तमिलनाडु के एक गांव में रहते हैं

'मैं एक रिमोट सीईओ हूं' धान के हरे लहलहाते खेतों को देखकर श्रीधर वेम्बू ये बात कहते हैं.

श्रीधर और उनके भाई ने मिलकर 1996 में सिलिकन वैली में ज़ोहो कंपनी स्थापित की जो तकनीक की दुनिया में जाना माना नाम है. 25 साल से क्लाउड-आधारित इस सॉफ्टवेयर कंपनी में 9500 कर्मचारी काम करते हैं और फ़ोर्ब्स मैग़ज़ीन के मुताबिक़ इन भाइयों की संपत्ति 1.5 बिलियन डॉलर है.
लेकिन लगभग तीन दशक तक कैलिफ़ोर्निया में बिताने और अपनी कंपनी को आगे बढ़ाने के बाद श्रीधर ने तय किया कि वह किसी शांत, बहुत जगह पर बस जाना चाहते हैं और ऐसी जगह की खोज उन्हें दक्षिण भारत के एक दूर-दराज़ के गांव तक लाई.
ना सड़क, ना घरों तक आता पानी और ना नालियों की व्यवस्था
श्रीधर बताते हैं कि यहां कई-कई बिगहों में धान की खेती होती है. ये हरियाली से भरा गांव चेन्नई से लगभग 600 किलोमीटर दक्षिण में स्थित तेनकाशी ज़िले में है.
गांव की आबादी 2000 से भी कम है और यहां सड़के नहीं हैं, घरों में पाइप के ज़रिए जाने वाले पानी की व्यवस्था नहीं है, निकासी के लिए नालियों की समुचित व्यवस्था नहीं है. बिजली भी आती-जाती रहती है, इसलिए श्रीधर ज़्यादातर डीजल वाले जेनरेटर पर निर्भर रहते हैं.
ये जगह सिलिकन वैली से काफ़ी दूर है. ऐसे में श्रीधर यहां से काम कैसे करते हैं?
दरअसल, यहां आज की दुनिया का सबसे ज़रूरी टूल उपलब्ध है और वो है इंटरनेट, श्रीधर हाई-स्पीड इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं जिसकी मदद से वह ऑफिस के काम करते हैं.
बड़ी कंपनी के बॉस होने के कुछ फ़ायदे भी हैं. श्रीधर बताते हैं, "मेरे पास वो चीज़े आती हैं जो बड़ी नीतियों से जुड़ी हों वरना कई निर्णय स्थानीय रूप से एक टीम ही करती है."
ग्रामीण जीवन का सुख
श्रीधर जहां रहते हैं उनके आस-पास ना तो कोई एग्ज़ीक्यूटिव रहता है और ना ही कोई सलाहकार. लेकिन फिर भी वो एक बड़ी कंपनी का नेतृत्व कर पाते हैं.
वह कहते हैं, "एक टीम है जो मुझे सीधे रिपोर्ट करती है. मैं प्रोग्रामर्स के साथ काम करता है हूं. कुछ बड़े टेक प्रोजेक्ट पर काम करता हूं. इस सॉफ्टवेयर टीम में दुनिया के कोने-कोने से इंजीनियर काम करते हैं."
श्रीधर एक हालिया बने दो बेडरूम के फॉर्महाउस में रहते हैं. उनके घर में एयर कंडिशनर नहीं है और कार की जगह वह इलेक्ट्रिक ऑटोरिक्शा या साइकिल का इस्तेमाल करते हैं और अक्सर गांव के चाय की दुकान पर जाया करते हैं और स्थानीय लोगों से मिला करते हैं.
वह बताते हैं, "मैं यहां अपनी ज़िंदगी को भरपूर रूप से जी रहा हूं, यहां मैं अब कई स्थानीय लोगों को जानता हूं, कई आस-पास के गांव वालों को भी जानने लगा हूं."
श्रीधर गांवों में आमतौर पर जींस-टीशर्ट पहने घूमते दिख जाते हैं लेकिन कभी-कभी वह गांव के अन्य लोगों की तरह धोती भी पहना करते हैं.
'लोग जानते हैं लेकिन 'सेलिब्रिटी' की हैसियत से नहीं'
उन्हें लेकर की गई मीडिया कवरेज की बदौलत ज़्यादातर स्थानीय लोग जानते हैं कि वह कौन हैं. फिर भी, वह जोर देकर कहते हैं कि वह एक सेलिब्रिटी नहीं है. उन्होंने बीबीसी से गांव का नाम ना छापने की शर्त रखी क्योंकि वो नहीं चाहते कि लोग वहां उनसे मिलने पहुंच जाएं.
वह बताते हैं, "ग्रामीण सामाजिक जीवन बहुत अलग है लोगों के पास अच्छे दोस्त बनाने का समय है. कोई व्यक्ति खाने के लिए आपको घर आमंत्रित करेगा, हाल ही में जब मैं एक पास के गाँव में गया तो शायद मेरी 10 या 15 लोगों से बातचीत हुई."
श्रीधर कहते हैं कि वह कभी चमक-दमक में रहने वाले बिजनेसमैन नहीं रहे इसलिए उन्हें अपनी पुरानी बड़े शहर में बिताई ज़िंदगी की याद नहीं आती.
वह कहते हैं, "मैंने कभी गोल्फ़ नहीं खेला, समाजिक होना पसंद नहीं रहा. मैं काम के सिलसिले में घूमा करता था लेकिन अब ये काम भी वीडियो पर हो जाता है."
वह अपने इंडस्ट्री में नए रुझानों से अपडेट रहने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं और कहते हैं कि वह कुछ चुनिंदा दिलचस्प लोगों को फॉलो करते है.
महामारी के दौर से पहले बनाया सेटेलाइट ऑफ़िस
जब बीते साल कोरोनो महामारी ने दस्तक दी, दुनिया भर के दफ़्तरों में वर्क फ्रॉम होम का चलन शुरू हुआ. नतीजतन, कई कंपनियां स्थाई रूप से वर्क फ्रॉम होम की ओर बढ़ने लगी.
लेकिन श्रीधर ने वक्त से पहले ही ये काम कर लिया था. ना वे ख़ुद दफ्तर से मीलों दूर बैठकर काम करते हैं बल्कि अपने कर्मचारियों के लिए भी ये रास्ता खोला. अब वो मानते हैं कि उनके पास स्थायी कामकाजी मॉडल है.
उनकी कंपनी ज़ोहो ने आज से 10 साल पहले पहला ग्रामीण दफ़्तर तमिलनाडु के तेनकासी में बनाया, तब से लेकर अब तक ज़ोहो के 30 सैटेलाइट दफ़्तर हैं.
वह कहते हैं, "हम अब तक पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं कि काम का पैटर्न कैसे विकसित हो रहा है. लेकिन हम इन ग्रामीण कार्यालयों को बनाने में भारी निवेश कर रहे हैं और हम ऑनलाइन टूल में भी निवेश कर रहे हैं."
श्रीधर को उम्मीद है कि उनके लगभग 20 से 30 प्रतिशत कर्मचारी स्थाई रूप से घर से ही काम कर सकेंगे और सैटेलाइट ऑफ़िस मीटिंग की ज़रूरत को पूरा करेंगे. इससे कई सारे कर्मचारियों को चेन्नई आने की ज़रूरत नहीं होगी जहां उनकी कपंनियों के सबसे ज़्यादा कर्मचारी हैं.
जहां भी हमारे कर्मचारियों की संख्या थोड़ी ज़्यादा होती है वहां हम अपना ऑफिस बनाते हैं. कर्मचारी सप्ताह में एक दो दिन घर से काम कर सकते हैं और बीच-बीच में दफ्तर आ सकते हैं. वो बताते हैं कि सैटेलाइट ऑफिस में 100 कर्मचारियों के जुड़ने की सुविधा होती है.
श्रीधर इस गांव में क्यों आए?
श्रीधर भारत में पैदा हुए थे और हमेशा अपने स्कूल की छुट्टियों के दौरान अपने पैतृक गाँव में बिताए दिनों को संजोते रहे. आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाने के बावजूद, वह हमेशा एक भारतीय गांव में एक दिन की वापसी करना चाहते थे.
जब श्रीधर ने सैन फ्रांसिस्को छोड़ने का फ़ैसला किया तो ये उनके सहयोगियों के लिए बहुत बड़ा झटका नहीं था.
जोहो के मार्केटिंग और कंज्यूमर एक्सपीरिएंस के अध्यक्ष प्रवल सिंह कहते हैं, "श्रीधर हमेशा से दूर-दराज़ बैठ कर ही काम किया करते थे. जब वह इतने सालों तक कैलिफ़ोर्निया में थे तो भी हमारी कंपनी के 90% कर्मचारी चेन्नई से काम करते थे. हमारी टीम दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों से काम करती हैं."
श्रीधर नियमित तौर पर अमेरिका, ब्राज़ील और सिंगापुर में काम कर रहे अपने कर्माचरियों से मिलते और बात करते रहते हैं.
शिक्षा व्यवस्था से शिकायतें
श्रीधर अपना खुद का व्यवसाय स्थापित करने से पहले भारत और अमेरिका के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई की लेकिन वह शिक्षा प्रणाली को लेकर बहुत सकारात्मक विचार नहीं रखते.
उन्होंने आईआईटी, मद्रास में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और फिर अमेरिका में प्रिंसटन विश्वविद्यालय से परास्नातक और पीएचडी हासिल किया. लेकिन वह जोर देकर कहते हैं कि उनकी शिक्षा का उनकी सफलता से कोई लेना-देना नहीं है.
वह कहते हैं, "मैं प्रोफ़ेसर बनना चाहता था और उच्च स्तर का गणित पढ़ाना चाहता था लेकिन अब मैं बेहद सतही गणित का काम करता हूं."
श्रीधर का मानना है कि छात्रों को बिना सही संदर्भ समझाए थ्योरी बताई जाती है, रटाई जाती है जबकि उन्हें ये नहीं समझया जाता कि आम जिंदगी में उसका इस्तेमाल कैसे होता है.
वह कहते हैं, "मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं, मुझे मैक्सेवल के समीकरण पढ़ाए गए लेकिन आज मुझे कुछ भी याद नहीं है. मैक्सवेल का समीकरण इलेक्ट्रोमैग्नेटिज़्म का आधार माना जाता है, लेकिन मैं ये मानता हूं कि आपको ये तब जानना ज़रूरी है जब आपको ये पता हो कि मोटर काम कैसे करते हैं, और ये आपको मोटर बना कर और बिगाड़ कर ही पता चलेगा."
श्रीधर की सोच में स्कूल कैसा हो?
श्रीधर स्कूली शिक्षा को लेकर काफ़ी उत्साह रखते हैं. उन्होंने 'ज़ोहो स्कूल' की स्थापना की है जो शिक्षा के पारंपरिक तरीकों से हटकर शिक्षा देता है.
तमिलनाडु में ऐसे दो स्कूल हैं और जिनमें से एक स्कूल तेनकाशी में है जहां श्रीधर हर दिन जाते हैं.
उनके स्कूल सॉफ्टवेयर टेक्नॉलॉजी, प्रबंधन, डिजाइन, रचनात्मक लेखन जैसे विषयों पर दो साल के कार्यक्रम चलाते हैं. इन स्कूलों में पढ़ने के लिए आयुसीमा 17 से 20 साल होनी चाहिए और छात्र की 12 साल तक की स्कूल शिक्षा पूरी होनी चाहिए.
छात्रों को खाना दिया जाता है और हर महीने भत्ते के रूप में 140 डॉलर (लगभग 10 हज़ार रुपये) दिया जाता है.
श्रीधर कहते हैं, "हम प्रोग्रामिंग करना सीखाते हैं और बच्चे खुद ऐप बनाते हैं. आप बिना फ्लूइड डायनमिक्स जाने एक बेहतर पल्म्बर हो सकते हैं, आप बिना कम्प्यूटर साइंस के नियम जाने हुए भी एक बेहतरीन प्रोग्रामर हो सकते हैं, ये समझना बेहद ज़रूरी है."
लगभग 900 छात्र जो ज़ोहो स्कूल से पास हुए वो आज श्रीधर की कंपनी के काम करते हैं.
बिल गेट्स और वॉरेन बफ़ेट जैसे कुछ अरबपतियों अपनी संपत्ति के बड़े हिस्से को परोपकारी कामों के लिए अलग कर देते हैं लेकिन श्रीधर का कहना है कि वह पश्चिमी मॉडल का अनुकरण करने के इच्छुक नहीं हैं, उनका तर्क है कि सामाजिक जिम्मेदारी उनके बिजनेस का अभिन्न हिस्सा है.
वह कहते हैं, "हम कई ऐसे काम करते हैं लेकिन उसे चैरिटी का नाम नहीं देते. जब हम लोगों को स्किल देते हैं जिससे उन्हें नौकरी मिलती है तो इससे हम कंपनी की भी मदद करते हैं और उस शख़्स की भी."
श्रीधर बस स्कूल तक ही रुकना नहीं चाहते बल्कि उन्होंने दक्षिण भारत में 250 बेड वाला अस्पताल बनाने का एलान किया है ताकि ग्रामीण इलाके के मरीज़ों को ज़रूरी इलाज दिया जा सके.
जनवरी में उन्हें भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म श्री दिया गया. और उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड में नियुक्त किया गया, जहां उनकी भूमिका देश के आर्थिक और सुरक्षा जरूरतों के लिए महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तरीके तलाश करना है.
क्या वो हमेशा इस रिमोट गांव से काम करेंगे?
श्रीधर का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि महामारी खत्म होने पर वह अपने अमेरिकी कार्यालय जाएंगे.
वह कहते हैं कि उनकी स्थायी रूप से वहां वापस जाने की कोई योजना नहीं है. वह सिलिकॉन वैली के पैसे और ग्लैमर से आकर्षित नहीं होते.
वह बताते हैं, "मैं एक कंपनी चलाता हूं, मेरी कंपनी बड़ी है लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि मैं वो जिंदगी जीने लगूं जो मैं नहीं चाहता. मुझे उस तरह की जिंदगी की कभी याद नहीं आती. हम अक्सर सोचते हैं कि पैसे से सारी समस्याओं का हल निकल सकता है लेकिन ऐसा नहीं है. इंसान को समाजिक डोर की ज़रूरत होती है."
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source: bbc.com/hindi

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