बंजर व उर्वरा खो चुकी भूमि के लिए वरदान है ढैंचा की खेती

मधेपुरा। बढ़ते रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से खेत की मिट्टी में उर्वरा शक्ति का ह्रास हो रहा है। इसका सीधा असर फसलों के उत्पादन पर हो रहा है। किसान बेहतर उत्पादन के लिए वृहत पैमाने पर रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कर रहे हैं। इस कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति लगातार प्रभावित हो रही है। खासकर रबी फसलों में मक्का की फसल में जमकर उर्वरक का प्रयोग होता है। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी के लिए आवश्यक 16 पोषक तत्वों की आपूर्ति नहीं हो पाती है। जबकि ढैंचा 16 पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए पर्याप्त है। हरी खाद के प्रयोग से न केवल अच्छी पैदावार मिलती है। बल्कि रासायनिक उर्वरकों का खर्चा भी कम किया जा सकता है। कब होती है ढैंचा की खेती 15 अप्रैल के बाद शुरू होने वाले ढ़ैंचा की खेती के लिए एक हेक्टेयर में 15 से 20 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। अमूमन ढैंचा धान लगाने के लगभग दो माह पूर्व लगाया जाता है। मई एवं जून के महीने में हल्की बारिश होने के कारण इसके पटवन या विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है और यह खाली पड़े जमीन के लिए उपयुक्त होता है। ढैंचा में पोषक तत्वों के साथ सूखे से निबटने की होती है क्षमता ढेंचा न केवल पोषक तत्व की आपूर्ति करता है। बल्कि इससे खेतों में नमी की मात्रा बरकरार रहने से पटवन का खर्च भी कम होता है। ढैंचा कार्बनिक अम्ल पैदा करती है। जो लवणीय और क्षारीय भूमि को भी उपजाऊ बना देती है। ढैंचा की विकसित जड़े मिट्टी में वायु का संचार बढ़ाती है। मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्मजीव इसे खाद्य पदार्थ के तौर पर प्रयोग करते हैं। मिट्टी में अपघटन बढ़ने के कारण जैविक गुणों में वृद्धि होने के साथ ही फसलों को आसानी से पोषक तत्व प्राप्त होता है। इससे उत्पादन बढ़ता है। मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा बढ़ने के कारण जलधारण की क्षमता का विकास होता है।


काफी उपयोगी होती है ढैंचा की खेती एक एकड़ में लगे ढैंचा की फसल को लगभग 55 दिनों बाद खेतों में ही पलटाई व जुताई करने से औसतन 25 से 30 टन हरी खाद तैयार होती है। जिससे 80 से 120 किलोग्राम नेत्रजन, 12 से 15 किलोग्राम फास्फोरस,आठ से 10 किलोग्राम पोटाश की आपूर्ति होती है। इससे रसायनिक उर्वरक का औसत प्रयोग घट जाता है। इससे प्रति एकड़ धान की फसल में रसायनिक उर्वरकों के लिए होने वाले खर्च में औसतन दो हजार तक की कमी आती है। जबकि बंजर एवं उर्वरा खो चुकी भूमि के लिए भी यह वरदान साबित होता है।
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