Haseen Dillruba Review: बिल्कुल पल्प फिक्शन का फील देती है तापसी पन्नू की मर्डर मिस्ट्री, 'कुछ अच्छी-कुछ बुरी'

मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। नेटफ्लिक्स पर इस शुक्रवार रिलीज़ हुई हसीन दिलरूबा एक मर्डर मिस्ट्री है, जिसमें तापसी पन्नू, विक्रांत मैसी और हर्षवर्धन राणे ने मुख्य किरदार निभाये हैं। फ़िल्म का निर्देशन विनिल मैथ्यू ने किया है। विनिल इससे पहले धर्मा प्रोडक्शंस की फ़िल्म हंसी तो फंसी का निर्देशन कर चुके हैं। हसीन दिलरूबा का निर्माण आनंद एल राय और हिमांशु शर्मा ने किया है।

आनंद और हिमांशु की जोड़ी रांझणा और तनु वेड्स मनु जैसी छोटे शहर-क़स्बों की गुदगुदाने वाली प्रेम कहानियां दे चुकी है। ये दोनों पहली बार मर्डर मिस्ट्री लेकर आये हैं। हसीन दिलरूबा की कथा, पटकथा और संवाद कनिका ढिल्लों ने लिखे हैं। आनंद, हिमांशु और कनिका ने मिलकर एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री तैयार की है, जो छोटे क़स्बे और मिडिल क्लास फैमिली में सेट की गयी है। हालांकि, जिस शिद्दत से छोटे क़स्बों की प्रेम कहानियां दिल में उतरती रही हैं, यह दिलरूबा उतनी गहराई से उतरने में कामयाब नहीं होती। जैसा कि फ़िल्म में तापसी का किरदार कहता भी है- कुछ अच्छी, कुछ बुरी।
हालांकि, जिस तरह की कहानी है, उसकी पृष्ठभूमि कहीं भी रखी जा सकती थी, मगर सम्भवत: यह आनंद और हिमांशु का हार्टलैंड के लिए लगाव ही है कि कहानी को ज्वालापुर नाम के छोटे शहर में ले गये। फ़िल्म की शुरुआत घर में सिलेंडर ब्लास्ट से होती है, जिसमें रिशु की मौत हो जाती है। एक कटा हुआ हाथ मिलता है, जिस पर रानी नाम का टैटू बना है।
बॉडी के बचे हुए हिस्से देखकर पुलिस को शक़ है कि ब्लास्ट से पहले मृतक के सिर पर पीछे से वार किया गया था। इनवेस्टिगेशन ऑफ़िसर किशोर रावत को यक़ीन है कि रिशु का क़त्ल पत्नी रानी कश्यप ने ही किया है और उसे मर्डर वेपन की तलाश है। वो रानी से पूछताछ शुरू करता है, मगर रानी क़ातिल होने से इनकार करती है। रानी अपनी कहानी रावत को सुनाती है।
रिशु से उसकी अरेंज मैरिज छह महीने पहले ही हुई थी। पेशे से इंजीनियर 32 साल का रिशु ज्वालापुर इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी करने वाला सीधा-सादा युवक है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को ठीक करना उसकी हॉबी है। 28 साल की रानी ख़ूबसूरत और आधुनिक ख़्यालों वाली लड़की है। घर-गृहस्थी के कामों में उसकी दिलचस्पी नहीं है। अलबत्ता सजने-संवरने का उसे शौक़ है। इसको लेकर उसे सास के ताने भी सुनने पड़ते हैं।
संकोची रिशु, रानी को पसंद करता है, मगर उसकी मुखरता और बिंदास अंदाज़ की वजह से उसके क़रीब नहीं हो पाता। इस बीच रिशु का मौसेरा भाई नील त्रिपाठी उनके घर रहने आता है। रंगीन मिज़ाज नील पर रानी आसक्त हो जाती है। दोनों के बीच प्रेम संबंध बन जाते हैं। रानी, नील के साथ भागने को तैयार हो जाती है, मगर इसे भांपकर नील पहले ही चला जाता है। रानी को धक्का लगता है। ग्लानि से भरी रानी रिशु को सच बता देती है।
रिशु कुछ नहीं कहता। रानी, रिशु की सज्जनता से प्रभावित होकर उसके क़रीब आने लगती है। कुछ घटनाक्रमों के बाद रिशु रानी को माफ़ कर देता है और दोनों के बीच संबंध सामान्य हो जाते हैं। यह सब फ्लैशबैक में दिखाया गया है। अब सवाल यही है कि रिशु क्यों मारा जाता है? अगर रानी से उसके संबंध सामान्य हो गये तो वो उसे क्यों मारेगी? क्या रानी, रिशु के जज़्बात से खेल रही थी? क्या रानी ने नील के साथ मिलकर रिशु को मारने की कोई साजिश रची है? ऐसे कई सवाल हसीन दिलरूबा की कहानी का सस्पेंस बनाकर रखते हैं।
कनिका ढिल्लों ने अपनी पटकथा को दो ट्रैक्स में बांट दिया है। एक पुलिस जांच के साथ आगे बढ़ता है तो दूसरा पुलिस की पूछताछ में रानी का बयान के ज़रिए अतीत में ले जाता है। अतीत के इस हिस्से में आनंद और हिमांशु का छोटा क़स्बा नज़र आता है और इन दृश्यों में दर्शक उस ह्यूमर से बावस्ता होता है, जिसके लिए इस फ़िल्म की कहानी को हार्टलैंड में स्थापित किया गया है।
रानी और उसकी सास के बीच खाना पकाने और घर के कामों को लेकर होने वाली नोकझोंक, रानी का सोचना कि अरेंज मैरिज की वजह से उसे रानी जैसी बीवी मिली है, शादी के बाद छोटे शहर में रहने के लिए रानी की एडजस्टमेंट। इन दृश्यों ने रानी और रिशु के बिगड़ते रिश्तों की बुनियाद तैयार करने में मदद की, जो आगे चलकर इस मर्डर मिस्ट्री का अहम प्लॉट बनता है।
हालांकि, किसी मर्डर मिस्ट्री में अगर शक़ की सुई सीधे नायक या नायिका पर केंद्रित हो, पटकथा बहुत मायने रखती है। लेखक के सामने यह बहुत बड़ा चैलेंज होता है कि कैसे दर्शक को काल्पनिक रोमांचक परिस्थितियों में बांधकर रखा जाए कि ब्रेक लेने की बारी आये तो वो झुंझला उठे।
हसीन दिलरूबा इस मोर्चे पर विफल रही है। कहानी का सस्पेंस और थ्रिलर बांधकर नहीं रख पाता। एक पड़ाव के बाद फ़िल्म की कहानी प्रेडिक्टेबल हो जाती है। थ्रिलर फ़िल्मों के शौक़ीनों के लिए अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं रहता कि आगे क्या होने वाला है।
हसीन दिलरूबा में नायिका को हिंदी पल्प फिक्शन पढ़ने का शौक़ीन दिखाया गया है और इस फ़िल्म का कलेवर भी किसी पल्प फिक्शन की तरह ही रखा गया है, जिसे आम भाषा में सस्ता साहित्य कहा जाता है। रानी दिनेश पंडित नाम के लेखक से इतनी प्रभावित है कि उसके उपन्यास में पढ़ी हुई लाइनों का इस्तेमाल ब्रह्मवाक्यों की तरह करती है। कनिका की पटकथा में कुछ झोल हैं, जो अखरते हैं। रानी, एक मर्डर केस में प्राइम सस्पेक्ट है, मगर उससे पुलिस सिर्फ़ पूछताछ कर रही है। उसे गिरफ़्तार भी नहीं दिखाया जाता। पूछताछ के बाद वो घर वापस आ जाती है।
अब अगर अभिनय की बात करें तो ख़ुद को आधुनिक कहने वाली रानी कश्यप के रोल में तापसी ने ठीक काम किया है। हालांकि, तापसी इससे बेहतर अभिनय के लिए जानी जाती हैं। लेकिन, अपने किरदार की हदों में उनका काम सराहनीय है। छोटे क़स्बे के सीधे-सादे, काम से मतलब रखने वाले शांत ऋषभ सक्सेना के किरदार में विक्रांत मैसी रमे हुए नज़र आते हैं।
विक्रांत का किरदार कहानी में कुछ अहम ट्विस्ट लेकर आता है। हर्षवर्धन राणे, रंगीन मिज़ाज नील के किरदार में फिट हैं। रिशु की मां किरदार में यामिनी दास ने अच्छा काम किया है। पिता के किरदार में दयाशंकर पांडेय ठीकठाक रहे। घर के आराम में ओटीटी प्लेटफॉर्म पर हसीन दिलरूबा एक बार देखी जा सकती है, मगर कोई उम्मीद लेकर मत बैठिए।
कलाकार- तापसी पन्नू, विक्रांत मैसी, हर्षवर्धन राणे, आदित्य श्रीवास्तव, यामिनी दास, दयाशंकर पांडेय, आशीष वर्मा आदि।
निर्देशक- विनिल मैथ्यू
निर्माता- आनंद एल राय, हिमांशु शर्मा आदि।
रेटिंग- **1/2 (ढाई स्टार)

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