True Movie Review: कहानी अच्छी है, स्क्रिप्ट खराब है, अभिनय और खराब है 'ट्रू'

True Movie Review: तेलुगु फिल्मों में एक बात देखने की मिलने लगी है- अच्छी कहानियां. एक समय था जब लार्जर दैन लाइफ हीरो, सिर्फ नाचने गाने के लिए हीरोइन, भद्दी सी शकल वाला विलेन और उसके गुंडे, दुखियारे से माता पिता और बड़ी ही फार्मूला सी स्टोरी जिसमें हीरो, विलन से बदला ले कर पाप का अंत कर देता है. अब कहानियां थोड़ी मॉडर्न हैं, नयी विचारधारा की हैं, हीरो बिना बात सुपर हीरो बनने की कोशिश नहीं करता और हीरोइन भी फिल्म की कहानी में महत्वपूर्ण किरदार निभाने लगी हैं. विलन भी अब रीयलिस्टिक नज़र आते हैं. हाल ही में अमेज़ॉन प्राइम वीडियो पर रिलीज़ होने वाली फिल्म 'ट्रू' यानी 'सच' एक ऐसी फिल्म है जो टिपिकल फिल्मों से कहानी के मामले में बेहतर हैं बस स्क्रिप्ट और अभिनय में बेहतर होती तो ये फिल्म सभी की पसंद बन सकती है. फिल्म 'ट्रू' की कहानी इसका सबसे मजबूत पहलू है. एक नौजवान इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट विग्नेश (हरीश विनय) लंदन से लौटता है जब उसे पता चलता है कि उसके सरपंच पिता मधुसूदन रेड्डी (मधुसूदन राव) की बिजली का झटका लगने से मृत्यु हो गई है. पूरा मामला सुनने पर उसे लगता है उसकी जांच करनी चाहिए. जांच करते हुए उसे कई ऐसे सबूत मिलते हैं जिस से लगता है कि उसके पिता का कत्ल हुआ है. जांच करते हुए कई रुकावटें आती है, विग्नेश पर जानलेवा हमला होता है, उन्हें धमकाया जाता है लेकिन वो अपने मित्र और पिता के परिचितों की मदद से जांच जारी रखते हैं. एक सीसीटीवी फुटेज की मदद से वो एक लड़की तक पहुँचते हैं तो एक बहुत बड़ा, गहरा और घिनौना राज उनके सामने आता है. विग्नेश को पता चलता है कि उनके पिता की मृत्यु एक ऐसी सच भरी कहानी है जिसमें विग्नेश की बहुत बड़ी भूमिका है और पूरा का पूरा गाँव विग्नेश को ये यकीन दिलाने में लगा हुआ है कि उनके पिता की हत्या नहीं हुई है. विग्नेश के लिए और बड़ा झटका होता है जब उसे ये पता चलता है कि इन सब में उनकी माँ भी शामिल है.कहानी में जो रहस्य है वो वास्तव में आखें खोलने वाला है और किसी भी दर्शक को चौंका सकता है. दुर्भाग्य ये है कि फिल्म के लेखक-निर्देशक मंडला स्याम अपनी पहली ही फिल्म में एक बढ़िया कहानी को बढ़िया पटकथा यानि बढ़िया स्क्रिप्ट बनाने से चूक गए हैं. फिल्म में बार बार ऐसे दृश्य आते हैं जहाँ लगता है कि कहानी में रोचक मोड़ आने वाला है और अब हत्या की गुत्थी सुलझ जायेगी, लेकिन रहस्य सुलझने के बजाये नया किरदार कहानी में आ जाता है. कई बार लगता है कि रोमांच और थ्रिल इस कहानी में अब तो देखने को मिलेगा, वो बड़ा ही ठन्डे तरीके से दिखाया जाता है. जब निर्देशक थोड़ी रियलिटी और थोड़े ड्रामा वाला स्क्रिप्ट लिखते हैं तो वो 'रियल' सिनेमा की तरफ झुक जाते हैं और चाहते हैं कि दर्शक उन्हें एक लॉजिकल निर्देशक समझें. ये 'ट्रू' फिल्म का दुर्भाग्य है.फिल्म में मुख्य अभिनेता हरीश विनय बहुत ही कच्चे कलाकार हैं. कोई भी भाव उनके चेहरे पर ज़्यादा देर टिक नहीं पाता और इस वजह से इंटेंसिटी दर्शक महसूस नहीं करते. हमेशा क्रोधित होने का असफल प्रयास करते हैं. कभी कभी टिपिकल फिल्मी हीरो की तरह बाइक चलाते हैं, दुश्मनों का पीछा करते हैं, हवा में छलांग लगा कर गोलियों से बचते हैं लेकिन ये सब बातें फिल्म की कहानी में उनका साथ नहीं देती. एक इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट से इस तरह की कलाबाजियों की उम्मीद नहीं होती. हरीश ने बहुत निराश किया है. फिल्म की अभिनेत्री लावण्या के पास रोल तो ठीक था लेकिन वो भी हरीश की ही तरह कमज़ोर अभिनेत्री हैं. सरपंच मधुसूदन रेड्डी की भूमिका में मधुसूदन राव ने बाकी कलाकारों से बेहतर अभिनय किया है. कहानी उन्हीं की ज़िन्दगी और मौत से उपजे सवालों का जवाब ढूंढने पर आधारित है लेकिन उनका किरदार अविश्वसनीय है.फिल्म में कुछ बातें थोड़ी अजीब लगती हैं क्योंकि अधिकांश फिल्म गांव में शूट हुई है और जिस तरह मेडिकल फैसिलिटी की बात दिखाई गयी है और जिस तरह के हॉस्पिटल या इलाज के दृश्य हैं वो संभव ही नहीं हैं. हरीश और लावण्या के बीच प्रेम है लेकिन फिल्म में वो सिर्फ फ्लैशबैक में नज़र आता है और इस पर थोड़ा यकीन करना मुश्किल होता है. हरीश पर गाँव के कुछ गुंडे दोनाली बंदूकों से जानलेवा हमला कर देते हैं. हरीश एक गुंडे को पकड़ भी लेते हैं तो गुंडे के साथी उसे मार देते हैं और देखते ही देखते लाश गायब कर देते हैं. गुंडों के टैटू दिखाए जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अब कोई क्लू मिलेगा, लेकिन ऐसा होता नहीं. मधुसूदन का किरदार अपने पुत्र के साथ जिस तरह का व्यव्हार करता है वो पहले किसी फिल्म में देखने को नहीं मिला है. ये कहानी का सबसे सशक्त हिस्सा था लेकिन इसे बहुत ही कमज़ोर ढंग से फिल्माया गया है.फिल्म का बजट शायद कम रहा होगा इस वजह से कई सीन काफी अजीब से शूट किये गए हैं. डिजिटल कैमरा आने के बाद शूटिंग आसान हो गयी है लेकिन डिजिटल कैमरा का सही इस्तेमाल किया जाये ज़रूरी है. सिनेमेटोग्राफर सिवा रेड्डी की ये पहली फिल्म है और उन्हें अभी काम सीखने की ज़रुरत है. और यही बात एडिटर जानकीरमन राव पमराजु के बारे में भी कही जा सकती है. इस कहानी में एक नयापन है, लेकिन स्क्रिप्ट और अभिनय ने इस कहानी के साथ इन्साफ नहीं किया है. फिल्म देखी जानी चाहिए कहानी के लिए.

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