दिल से आश्चर्य होता है अपना वक्त देखकर: चंदन राय सान्याल

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। हिंदी सिनेमा में 20 साल का सफर पूरा करने वाले चंदन राय सान्याल अब इंडस्ट्री में खुद को स्थापित कर चुके हैं। बीते साल रिलीज वेब सीरीज 'आश्रम' और हालिया रिलीज फिल्म 'रे' में चंदन के काम को खूब सराह गया है। हमारी संवाददाता स्मिता श्रीवास्तव ने उनसे खास बातचीत की। आइए जानते हैं उनसे बातचीत के कुछ अंश।

आज से 20 साल पहले जब मुड़कर देखते हैं तो फिल्मी करियर की क्या बातें याद आती हैं?
उस वक्त मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि जीवन में क्या होगा। घर के नीचे ही पीसीओ था, वहां से प्रोडक्शन कंपनियों में फोन करता था। तब एक-दो महीने बाद का अपाइंटमेंट मिलता था। अब लगता है वह बहुत मजेदार दिन थे। शुरुआत में फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट के तौर पर कभी वेटर, तो कभी असिस्टेंट बनकर दो-तीन साल गुजारे। मेरी पहली फिल्म 'कमीने' मिलने में आठ साल लग गए। अब अपने सफर को देखकर मैं खुद ही आश्चर्य में पड़ जाता हूं कि पिछले 20 साल से कैसे टिका रहा।
'रंग दे बसंती' से आपकी शुरुआत हुई थी। वह फिल्म कैसे मिली?
उस फिल्म में मैं ज्यादातर भीड़ में इधर-उधर भागता ही दिखाई देता हूं। साल 2001 में मुंबई आया और 2004 में मुझे आमिर खान, अतुल कुलकर्णी, वहीदा रहमान और अन्य बड़े सितारों के साथ इस फिल्म में काम करने का जो अनुभव मिला, वह मेरे लिए फिल्म स्कूल की तरह था। हमारा पहले दिन का शूट अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के सामने था। शूटिंग देखने हजारों लोग आए थे। यह सब देखकर लगा कि किस दुनिया में आ गया हूं। तब हमारा कू्र ही दो-ढाई सौ लोगों का था। तब पहली बार फिल्म शूटिंग की दुनिया का एहसास हुआ था।
फिर 'कमीने' मिलने में तीन साल का वक्त कैसे लग गया?
मेरा फेज ही ऐसा रहा है, मेरी जिंदगी धीरे चलती है। रंगमंच के कलाकारों में एक किस्म का गुरूर होता है कि अगर मैं करूंगा तो यही करूंगा वरना कुछ नहीं करूंगा। 'रंग दे बसंती' के बाद मैंने तय कर लिया था कि अब ऐसा रोल नहीं करूंगा जिसमें पीछे खड़े रहना पड़े। अगर कुछ अच्छा मिला तो ही करूंगा नहीं तो जिंदगी भर नाटक ही करता रहूंगा। इन तीन वर्षों में मैंने अमेरिका, कनाडा आस्ट्रेलिया और यूरोप समेत कई देशों में नाटक किए। 'कमीने' के लिए हनी त्रेहन ने मुझे आडिशन पर बुलाया था। आडिशन देने के बाद मैं गायब हो गया। मुझे लगा कि विशाल भारद्वाज की फिल्म है, कहां मेरा चयन होने वाला है? मैं किसी काम के सिलसिले में सैन फ्रांसिस्को में था, एक दिन यूं ही हनी को फोन लगाया तब उन्होंने मुझे फिल्म में चुने जाने की खबर बताई।
फिल्ममेकर सत्यजित रे से कैसा लगाव रहा है?
हर बंगाली सत्यजित रे, रित्विक घटक और मृणाल सेन का नाम सुनकर ही बड़ा होता है। मेरी जिंदगी में यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि उनकी कहानी पर कोई फिल्म बनी और मुझे उसमें काम करने का मौका मिला। बंगाल में रबी घोष नामक बहुत बड़े कलाकार थे। उन्होंने सत्यजित जी की कई फिल्मों में कामेडी किरदार निभाए हैं। मैंने अपने किरदार के लिए उन्हीं की चाल-ढाल और हाव-भाव को अपने किरदार में ढाला।
बालीवुड में दिखावा और स्टारडम बनाए रखना कितना जरूरी होता है?
अब ऐसा कुछ नहीं है। जो अभी भी इसमें फंसे हुए हैं, वे आगे नहीं बढ़ पा रहे। दुनिया के दूसरे देशों में भी फिल्में बनती है, वहां कहानी और कौन क्या कर रहा है, उससे बड़ा कुछ नहीं होता। अब दर्शक जागरूक हो चुके हैं। अब वह दुनियाभर में मौजूद हर तरह के कंटेंट और फिल्में देख रहे हैं। इस फिल्म के बाद जब ट्विटर पर लोगों की प्रतिक्रिया देखी तो मजा आ गया। अब लोग सीधे कलाकारों से जुड़ते हैं।
जब वेब सीरीज 'आश्रम' मिली, तब दिमाग में क्या चीजें चल रही थीं?
फिल्म हो, टीवी हो या फिर विज्ञापन, मैंने जो भी काम किया, बड़ी लगन से किया है। चाहे कितना भी छोटा रोल रहा हो, उसके लिए मुझे सराहना ही मिली है। 'जब हैरी मेट सेजल' में मैंने शाह रुख खान जैसे सुपरस्टार के साथ काम किया, उसमें भी मेरा काम दिखा और सराहना मिली। नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ 'मंटो' में भी मेरे काम को काफी तारीफें मिलीं। उसी तरह जब मैं 'आश्रम' कर रहा था तो यह सोचकर नहीं कर रहा था कि यह प्रकाश झा का शो है तो इसमें कुछ अलग करके दिख जाऊंगा। 'जब हैरी मेट सेजल' के लिए भी मैं तैयारी के साथ उतरा था। हालांकि, जब किरदार लंबा होता है तो दर्शक आपसे जुड़ पाते हैं। नौ घंटे के शो में आप हर एपिसोड में आकर अलग भावनाएं प्रदर्शित करते हैं। दर्शकों की आप पर निगाह जाती है। स्क्रीन टाइम से वाकई बहुत फर्क पड़ता है।
...और अब किन सपनों को पूरा करने की कोशिश है?
एक फिल्म बनाने की कोशिश कर रहा हूं, जिसके लिए पिछले चार-पांच वर्ष से कहानियां लिख रहा हूं। मौका मिला तो अलग-अलग कहानियों पर फिल्म बनाना चाहूंगा। इससे पहले मैंने कुछ शार्ट फिल्में भी बनाई हैं।

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