बदल गया है पंचायत चुनाव का तरीका, पहले पैदल यात्रा कर मांगते थे वोट

मुंगेर । पंचायत चुनाव की डुगडुगी बजते ही गांव के राज-पाट से जुड़ने या उस पर का काबीज होने की होड़ शुरू हो चुकी है। ग्रामीण सत्ता पर काबिज होने की इस होड़ में अपना सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार बैठे हैं। धरहरा प्रखंड की अजीमगंज पंचायत के मुखिया रहे अवधेश प्रसाद राय अब चुनाव में भाग नहीं लेते हैं। पहले जमाने के पंचायत चुनाव की बात छेड़ी गई तो मुखिया जी कह उठे वह समय भी था जब पंचायत चुनाव में प्रत्याशी को उनके व्यक्तित्व, कृतियों और जनता के दुख-दर्द को समझने की क्षमता पर वोट मिलता था। चुनाव खर्च में नामांकन शुल्क पर्चा-पोस्टर के अलावा खर्च नगण्य था। प्रभावशाली व्यक्ति को तो पर्चा की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। गांव में पैदल अथवा साइकिल से जनसंपर्क होता था। चुनाव में प्रत्याशी को उनकी लोकप्रियता के आधार पर मदद में चंदे के रूप में नगदी अनाज भी मिलते थे। प्रत्येक पंचायत चार वार्डों में बंटा होता था। मतदान की समाप्ति के बाद उसी दिन पंचायत में ही परिणाम घोषित कर दिया जाता था। उस समय विहंगम दृश्य होता था, जब चुनाव में पराजित होने वाले प्रत्याशी विजयी प्रत्याशी को गले लगाकर उन्हें बधाई देते थे। चुनाव की पुरानी व्यवस्था स्मृतियां में रह गई है


बड़े-बुजुर्गों की मानें तो पंचायतों के लिए होने वाले चुनाव की पुरानी व्यवस्था की स्मृतियां ही अब शेष रह गई है। वर्ष 2001 के बाद नई व्यवस्था ने गांव के इस राज्य पाठ की परिभाषा ही बदल दी। अवधेश प्रसाद राय कहते हैं कि पहले उम्मीदवार के व्यक्तित्व व चरित्र को देखकर ही जन समर्थन मिलता था। समाज के उत्थान के लिए स्वच्छ रखने तथा उस अनुरूप काम करने वाले ही सफल होते थे। चुनाव के दौरान प्रलोभन देने वाले समाज में उपेक्षित होते थे। पंचायत चुनाव में उन्हें कोई खर्च नहीं होता था। गांव के ही लोगों द्वारा नामांकन शुल्क जमा कर दिया करते थे, गांव के ही लोग पर्चे छपा दिया करते थे। अब तो स्थिति यह है कि करोड़पति से कम हैसियत वाले प्रखंड में प्रमुख बनने की कल्पना भी नहीं कर सकते। वह बताते हैं कि पहले गांव में मुखिया और सरपंच होना प्रतिष्ठा की बात थी। पहले के चुनावों में रुपए-पैसे का खेल नहीं होता था। समाज के लिए काम करने वाले व उनके विश्वास को जीतने का मद्दा रखने वाले आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति को ही मौका मिलता था।
---------------------
वित्तीय शक्ति मिलने के बाद हैसियत तो बड़ी है, लेकिन प्रतिष्ठा में आई कमी
वित्तीय शक्ति मिलने के साथ ही पंचायत प्रतिनिधियों की हैसियत तो बड़ी है, लेकिन प्रतिष्ठा में कमी आई है। लूट-खसोट और कमीशनखोरी के साथ-साथ दबंगता भी बड़ी है। उस समय इतनी सारी योजना भी नहीं थी। फिर भी जो योजना थी, उसको आम सभा के माध्यम से विचार विमर्श किया जाता था। जरूरतमंद लोगों को लाभ मिलता था। अब इतनी योजना होने के बावजूद धरातल पर कुछ दिखाई नहीं देता है।

अन्य समाचार