तांत्रिक विधि से होती है लछुआड़ में मां काली की पूजा

जमुई। लछुआड़ में मां काली की पूजा व आराधना चार शताब्दी पूर्व से नियम के अनुरूप होती चली आ रही है। लछुआड़ का यह प्रसिद्ध काली मंदिर तप साधना के लिए शक्तिपीठ स्थल के रूप में माना जाता है।

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लछुआड़ की ऐतिहासिक है पहचान
इस कस्बे की ऐतिहासिक रूप से दो ही पहचान है। एक यहां की गिद्धौर रियासत द्वारा स्थापित मां काली मंदिर तो दूसरी भगवान महावीर की जन्मकल्याणक भूमि, दोनों परंपरागत रूप से एक अलग महत्व रखता है।
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चार शताब्दी से निरंतर होती चली आ रही है मां काली की पूजा

यहां यह कहना मुश्किल है कि काली पूजा की शुरुआत कब और कैसे हुई। इस बात की जानकारी गांव एवं आसपास के लोग नहीं बता पाते हैं। बताया जाता है कि लछुआड़ गिद्धौर रियासत के अधीन था। महाराजा शिकार के लिए लछुआड़ के जंगल आया करते थे। इसी क्रम में शक्ति के उपासक रहे महाराजा पूरनमल व उनके वंशज महाराजा जयमंगल सिंह ने चार शताब्दी पूर्व लछुआड़ में एक काली मंदिर का निर्माण कराया। वहीं मन्दिर से सटे एक किला भी बनवाया जहां महाराजा जंगल का विहार करने के बाद आराम करते थे। आज भी वह किला जीर्णशीर्ण अवस्था में विद्यमान है।
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पूजा संपादन का अनोखा संगम
लोक परंपरा व पौराणिक विधान के अनुसार लछुआड़ में मां काली मंदिर में काली पूजन का अनोखा संगम देखने को मिलता है। पूजा विधि के संदर्भ में पूजा समिति के अध्यक्ष मधुकर सिंह, कोषाध्यक्ष मनोज यादव, सदस्य नरेश राम, सुनील चौधरी, सुभाष सिंह, अमित कुमार बंटी बताते हैं कि यहां तंत्र पद्धति के अनुरूप पूजन कार्य संपादित कराया जाता है। तांत्रिक पद्धति से पूजा संपन्न कराने के लिए देवघर के विद्वान पंडित तंत्र विधान की कुंडलिनि पद्धति से मां काली की पूजा अर्चना कराते हैं। उन्होंने बताया कि पूजा में मां काली को शुद्ध देशी घी में छप्पन प्रकार का भोग लगाया जाता है।
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काली पूजा के अवसर पर खेल तमाशों का होता है आयोजन
यहां के प्रसिद्ध मेले में कभी मल्लयुद्ध का अभ्यास, तीरंदाज, नृत्य संगीत प्रतियोगिता का आयोजन हुआ करता था। वर्तमान समय में टावर झूला, काठघोड़ा, सर्कस, जादू, मौत का कुआं, ब्रेक डांस झूला जैसे कई मनोरंजक खेल तमाशे की शोभा बढ़ाते हैं।

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