भूलते जा रहे फागनु के राग-रंग: जाके पियु बिलमे परदेस, कि, होली का से खेलूं ..

जासं, खगड़िया। वर्तमान भागमभाग और इस आर्थिक युग में हम गांव के साथ-साथ पर्व- त्योहारों के महत्व को भी भूलते जा रहे हैं। एक जमाना था जब बसंत पंचमी के साथ ही गांव में झाल, मजीरा के साथ- साथ ढोलक की थाप पर होली गायन प्रारंभ हो जाता था, लेकिन जैसे- जैसे लोग इस अर्थ युग के महाजाल में फंसते गए, रोजगार की तलाश में पैसे के लिए गांव को छोड़ कर शहर की ओर बढ़ते गए, वैसे- वैसे वे सामाजिक मूल्यों से भी दूर होते गए।

आज स्थिति यह हो गई है कि वे न सिर्फ पारंपरिक रीति रिवाज एवं सामाजिक मूल्यों को छोड़ें, बल्कि गांव की संस्कृति भी उनसे दूर होती चली गई। इतना ही नहीं इसका असर आज गांव में भी दिखाई देने लगा है। आज बिरहा- अब त बुढ़वा ऐसन रगड़ी घुमाय कह्य बान्हलक पगड़ी .., धमार- जाके पियु बिलमे परदेस, कि, होली का से खेलूं .., झुमरा- कारी रे महिसिया के दुधवा रे दुहैलीयै, कि, अमरित देलियै रे जोरनमा .. आदि गीतों से हमारे नई पीढ़ी के लोग बिल्कुल अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। सच में वह भी एक गजब सा आनंद था। जिसके लिए लोग दूर-दूर से गांव में आते थे। लेकिन आज होली में लोग आते तो जरूर हैं, लेकिन बस अपने कमरों में सिमट कर रह जाते हैं। शायद पड़ोसी को भी नहीं पता होता कि वे कब आए। इंटरनेट के इस जमाने में तो स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि घर के लोगों से भी अब लोगों को मतलब नहीं रह गया है। बस व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर आभासी दुनिया में होली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान और तरह-तरह के गानों को फारवर्डिंग करना रह गया है। सच तो यह है कि होली ग्राम्य जीवन का एक अविस्मरणीय और अछ्वुत क्षण होता है। जिसे लोग पहले वर्ष भर याद रखते थे और फिर अगले होली का इंतजार भी करते थे। जिनसे दुश्मनी भी रहती थी, तो होली के बहाने आपस में मेल मिलाप हो जाता था। अब नई पीढ़ी इन सब चीजों से इतनी दूर हो गई है, कि, कुछ भी कहना मुश्किल है। हमारे नवागंतुक पीढ़ी का इस तरह होना निश्चित रूप से हमारी संस्कृति और ग्राम्य जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं है।

डा. अनिल ठाकुर, समाजशास्त्री।

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