सारण बना अब कंक्रीट का जंगल

सारण। सारण जिले की भूमि पर वनों का असीम विस्तार था। उस वन में विचरने वाले हिरणों के झुंड। हिरण (सांरग) व वन (अरण्य) के कारण ही इसे पुरातन काल में सारंग अरण्य कहा गया। काल क्रम में नाम बदला और आज यह सारण है। यहां अब कंक्रीट के जंगल ने पेड़-पौधों की जगह ले ली है। मकान बनाना हो या सड़क, यहां अंधाधुंध पेड़ काटे जाते रहे हैं। पेड़ काटने के नियम की धज्जियां उड़ती रही हैं। हालांकि पर्यावरण संरक्षण के लिए काम भी कम नहीं हो रहे। इसकी जवाबदेही ओढ़े वन विभाग का पौधारोपण अभियान निरंतर चलता ही रहता है। विभाग का पुराने पेड़ बचाने की बजाय नये लगाने पर ज्यादा जोर है। नये पौधे जो लग रहे हैं उनके संरक्षण व संवर्धन की चिता उतनी नहीं, जितनी होनी चाहिए। शायद यही वजह है कि जिले में वन का क्षेत्रफल पिछले 10 सालों से जहां था, वहीं ठहरा हुआ है। मनरेगा के तहत पिछले वर्ष जिले में सात लाख 75 हजार दो सौ पौधे लगाये गये हैं। वहीं 2022-23 में छह लाख 36 हजार पौधा लगाने का लक्ष्य रखा गया है। पर्यावरण असंतुलन का खतरा, पर नहीं चेत रहे लोग ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से जूझ रहे देश-दुनिया के लिए पर्यावरण असंतुलन खतरा बन गया है। इस खतरे से न तो बिहार महफूज है और न सारण। जिले की बढ़ती आबादी के कारण हरियाली गुम हो रही है। सांस लेने को अनुकूल वायु अब नहीं मिल रहे। पीने को शुद्ध जल का संकट भी यहां शहर से गांव तक उत्पन्न होने लगा है। कभी बेमौसम बारिश तो कभी बाढ़ व सुखाड़ की समस्या यह जिला झेल रहा है।


बढ़ती आबादी व आर्थिक कारणों से पेड़ सारण के पिछले एक दशक से ज्यादा दिनों से धड़ाधड़ काटे जा रहे हैं। बाग-बगीचों की जगह कंक्रीट का जंगल फैलता जा रहा है। पर्यावरण के बिगड़ते हालात की वजह से शहर को कौन कहे देहात की आबोहवा भी प्रभावित होने लगी है। पेड़ लगने के बाद उसमें पानी देने वाला कोई नहीं एजेंसियां पौधे लगाकर चली जाती हैं और उसमें कोई पानी देने वाला नहीं होता। वन फैलाव व संरक्षण की योजनाएं सरकारी हो या गैर सरकारी। योजनाएं फाइलों तक सिमट कर रह गई हैं। मनरेगा से वानिकीकरण, आत्मा की बगावनी योजना, वन विभाग का पौधारोपण, स्वयंसेवी संगठनों के प्रयास सब चल रहे हैं। बावजूद जिले में वन आच्छादित क्षेत्र वहीं का वहीं है।

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