सरकारी दमन से बचने के लिए दूसरे गांव में नौकर बनकर रहे

जासं,शेखपुरा 25 जून,1975 की काली रात को याद करके आज भी वृजनंदन चाचा और रामेश्वर मांझी का हृदय कांप जाता है, जब देश में आपातकाल की घोषणा होते ही पुलिस इनके घरों के दरवाजे पीटने लगी थी। तब दोनों मुश्किल से किशोरावस्था को पार करके जवानी की दहलीज पर पहुंचे थे। बेलाव के वृजनंदन इंटर के छात्र थे तथा गोसांयमढ़ी के रामेश्वर खांटी मजदूर। असल में ये लोग उस समय देश की तत्कालीन केंद्रीय सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ क्षेत्र में सक्रिय आंदोलन में शरीक थे। इसी तरह की बात शेखपुरा बाजार के राजकुमार महतो, गोपाल केशरी, किशोरी प्रसाद, मियां उस्मान,भगवान दास यादव,भागीरथ शर्मा, ब्रहमदेव साव की थी। तब शेखपुरा महज प्रखंड मुख्यालय था। इन लोगों ने आपातकाल के दौरान प्रशासन और पुलिस का उत्पीड़न झेला था। इसमें कई लोग महीनों तक जेल की सजा काटी और कई गिरफ्तारी के भय से महीनों खानाबदोश जैसा जीवन जिया। सरकारी कार्यालयों पर लगाया काला झंडा


प्रो गोपाल केशरी बताते हैं कि जेपी के आह्वान पर आपातकाल के विरोध में साथियों के साथ 26 जून, 1975 को शेखपुरा की रजिस्ट्री कचहरी, प्रखंड कार्यालय और शेखपुरा पहाड़ पर काला झंडा फहराया था। राजकुमार महतो तब मैट्रिक के छात्र थे, मगर आपातकाल के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़े और नाबालिग रहते भी कई महीनों तक मुंगेर तथा भागलपुर जेल में रहना पड़ा। गोसांयमढ़ी के रामेश्वर मांझी भी सरकारी दमन से बचने के लिए कई महीनों तक घर-परिवार से दूर रहे। वृजनंदन प्रसाद कहते हैं कि पुलिस के डर से हम आंदोलनकारियों को नाता-रिश्तेदार भी अपने घर में नहीं रखना चाहते थे। ऐसी स्थिति में पुलिस के दमन से बचने के लिए दूर के गांव में अपनी पहचान छुपाकर किसान के यहां पशुओं को चारा-पानी देने की नौकरी तक करनी पड़ी थी।

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