गैंची मछली का जीरा विकसित, छोटे तालाब में पालन की कवायद

पूसा। गैंची मछली को बाढ़ व नदियों के प्रदूषित होने से काफी नुकसान पहुंचा है। बिहार की नदियों और बड़े तालाबों में पाई जाने वाली यह मछली हमेशा प्राकृतिक रूप से प्रजनन करती और विकसित होती रही है। अब मुजफ्फरपुर के ढोली स्थित मात्सि्यकी महाविद्यालय के विज्ञानियों को इसके जीरा (बीज) उत्पादन में सफलता मिली है। अब इस पर शोध हो रहा है कि छोटे-छोटे तालाब में इसका पालन कैसे किया जा सकता है। डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से संबद्ध ढोली स्थित मात्सि्यकी महाविद्यालय के वरिष्ठ मछली विज्ञानी डा. शिवेंद्र कुमार के नेतृत्व में चार विज्ञानियों की टीम ने तीन साल पहले इस पर काम शुरू किया था। इस मछली की लैब में ब्रीडिग कराने की कोशिश की। डा. शिवेंद्र बताते हैं कि गैंची मछली की लैब में ब्रीडिग कराने के लिए काफी दिक्कतें आईं। अन्य मछलियों के जीरा को जो फूड दिया जाता था, वह इनके लिए उपयुक्त नहीं था। इसके बाद फिडिग के लिए एग कस्टर्ड का इस्तेमाल किया गया। इसमें सफलता मिली। 30 दिन का होने के बाद इन मछलियों को नेचुरल खाना देने की शुरुआत की गई। इसमें भी सफलता मिली। अब शोध किया जा रहा है कि इन मछलियों का पालन किस तरह से छोटे तालाब में किया जा सकता है। इसमें सफलता मिलने के बाद इसका उत्पादन बड़े पैमाने पर हो सकेगा। अगले वर्ष जून-जुलाई में इसका जीरा किसानों के लिए उपलब्ध होगा। यह है खासियत : डा. शिवेंद्र के अनुसार यह मछली जितनी छोटी होती है, उतनी ही पौष्टिक और स्वादिष्ट। इसमें ओमेगा-3 फैटी एसिड और विटामिन डी और विटामिन बी-2 और मिनरल्स की मात्रा अधिक होती है। इस मछली का वजन 25 से 50 ग्राम तक होता है। प्राकृतिक रूप से यह करीब एक वर्ष में तैयार होती है। एक हेक्टेयर तालाब में इसके पालन में 10 हजार जीरा डालना पड़ेगा। करीब तीन टन मछली का उत्पादन होगा। बाजार में इसकी अच्छी मांग होती है। गैंची मछली 500 से 800 रुपये प्रति किलो तक बिकती है। कुलपति डा. मीरा सिंह बताती हैं कि बीज के बाजार में आते ही इस देसी प्रजाति की मछली का उत्पादन जहां आम हो जाएगा, वहीं मत्स्य पालकों की आय में वृद्धि होगी।


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