अरिपन की परंपरा से दूर होती जा रही है युवा पीढ़ी

संसू, महिषी (सहरसा): मिथिला की लोक संस्कृति में अरिपन का खास महत्व है। मांगलिक कार्याें में अरिपन आवश्यक है। अरिपन लेखन पुरानी परंपरा रही है और यह वैदिक काल की मानी जाती है। इसमें कई अवसर पर भित्तिचित्र की प्राचीन परंपरा का उल्लेख कई प्राचीन पुस्तकों में मिलता है। वर्तमान समय में अरिपन कला से महिलाएं दूर होती जा रही है। हाथ की जगह पर बना-बनाया कागज का अरिपन किया जा रहा है।

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स्वास्तिक अरिपन
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स्वास्तिक अरिपन की परंपरा वैदिक काल की मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह अरिपन वेद में सर्वतोभद्र नाम से आया है। स्वास्तिक का शब्द का अर्थ आशीष माना जाता है। स्वास्तिक अरिपन में 41 स्वास्तिकों को आपस में जोड़कर बनाया जाता है। इसमें भगवान विष्णु के चार भुजाओं को रेखांकित किया जाता है। गरूड़ पुराण के अनुसार तुलसी के पौधे से निकलने वाले स्वास्थ्यवर्धक वायु के कारण इसे तुलसी के पौधे के नीचे बनाया जाता है।

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तुसारी पूजा अरिपन
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मिथिला की महिलाओं द्वारा पूजित तुसरी पूजन में बनने वाले अरिपन को भगवती गौरी का यंत्र माना जाता है जिसपर त्रिशूल सी बनी आकृति त्रिदेव का प्रतीक मानी जाती है। मिथिला में शक्ति उपासना हर घर में की जाती है ।शक्ति पूजन के लिए जो अरिपन बनाए जाते हैं। उसे षड्दल अरिपन कहा जाता है। भगवान विष्णु की पूजा घरों में सत्यनारायण पूजन के रूप में किया जाता है। इस अवसर पर बनने वाला अरिपन अष्टदल अरिपन माना जाता है। इसके अतिरिक्त पृथिवी अरिपन, सांझ अरिपन ,कल्याण पूजा का अरिपन ,अबटन लगाने का अरिपन ,मौहक अरिपन ,षष्टी पूजन अरिपन ,मधुश्रावणी पूजा का अरिपन ,गवहा संक्राति का अरिपन ,कोजगरा का अरिपन ,दीपावली का अरिपन काफी प्रचलित मानी जाती है।
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अरिपन बनाने के लिए प्रयुक्त सामग्री
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अक्सर अरिपन चावल के आटा से अथवा चावल को पानी में भींगोकर उसे पीसकर (पिठार ) से बनाया जाता है। इसमें रंग भरने के लिए हल्दी और सिदूर का प्रयोग किया जाता है।
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युवाओं में अरिपन कला सीखने को लेकर रूचि का है अभाव
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आज के आधुनिक युग में युवाओं के बीच मोबाइल फोन ,टीवी जैसे अधुनिक संसाधन ने इस प्रकार से अपनी पैठ बना ली है कि युवा पीढ़ी अपनी अपने लोक सांस्कृतिक कला से दूर होने लगे हैं। हालांकि कुछ सामाजिक संस्थाओं के द्वारा मिथिला पेंटिग की तरह इन लोक कलाओं के संरक्षण को लेकर भी पहल शुरू की गयी है। मधुबनी फेस्टिवल के आयोजन में इन कलाओं के प्रति युवाओं में जागति लाने के उद्देश्य से अरिपन प्रतियोगिता जैसे आयोजन अवश्य करवाए जाते हैं। परंतु इसके संरक्षण के लिए जिस स्तर का प्रयास समाज में पहले दिखता था अब नहीं दिखता है।
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क्या कहती है महिलाएं
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अनुसूईया देवी बताती है कि पहले जब नई बहु अपने ससुराल आती थी तो सास ,जेठानी उससे लोक कला की निपुणता की परीक्षा लेते थे। गीता देवी बताी है कि पहले बेटी को हर मां लोक कला की शिक्षा घर में दिया करती थी। साबो देवी बतलाती हैं कि पुरानी पीढ़ी में बेटी को घर गृहस्थी के लिए तैयार किया जाता था और उसे संस्कृति और संस्कार की जानकारियां दी जाती थी। परंतु अब समय के साथ सब बदल गया।

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