पहाड़ियों में है मां मुंडेश्वरी का अष्टकोणीय मंदिर, दो हजार साल से हो रही पूजा; रक्तविहीन बलि करती हैं स्वीकार



भगवानपुर, संवाद सूत्र। कैमूर के भगवानपुर प्रखंड की पवरा पहाड़ी पर मां मुंडेश्वरी का प्रसिद्ध मंदिर है। इस शक्तिपीठ की ख्याति देश से लेकर विदेश तक है। यहां साल भर दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है।
मान्यता है कि माता अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करती है। यहां का मनोरम दृश्य लोगों का मन मोह लेता है। यही कारण है कि एक बार यहां जो आ जाता है, वह बार-बार आने का प्रयास करता है।

पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां मुंडेश्वरी का मंदिर अष्टकोणीय है। कहा जाता है कि इस स्वरूप का मंदिर देश में अन्य कहीं नहीं है। इसकी सुंदरता और भव्यता शब्दों से परे है। यह यहां की शक्ति का एक अद्भुत उदाहरण है।
मंदिर में शिलालेख और खंडित मूर्तियों में भी भव्यता दिखती है। मान्यता है कि लोक कल्याण के लिए मां भगवती ने मुंड नामक राक्षस का वध यहीं किया था। तब से यह स्थान मां मुंडेश्वरी के नाम से जाना जाता है।

बताया जाता है कि मां मुंडेश्वरी मंदिर का पता तब चला जब कुछ गड़ेरिये पहाड़ी पर अपने पशुओं को चराने ले गए। उसी समय मंदिर पर उनकी नजर पड़ी। इसके बाद धीरे-धीरे लोग इस मंदिर के बारे में जानने लगे। हालांकि, आरंभ में आसपास रहने वाले लोग ही मंदिर में आ कर पूजा करते थे।
माता मुंडेश्वरी की महिमा की ख्याति फैली तो फिर राज्य और देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी भक्त आने लगे। यहां से प्राप्त शिलालेख में वर्णित तथ्यों से पता चलता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया। उत्तर मध्य युग में शाक्त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणत हो गया।

मां मुंडेश्वरी मंदिर में लगभग दो हजार साल पहले से पूजा-अर्चना हो रही है। यह मंदिर पवरा पहाड़ी पर धरातल से 608 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर की प्राचीनता का एहसास यहां मिले महाराजा दुतगामनी की मुद्रा से भी होता है।
बौद्ध साहित्य के अनुसार वह राजा अनुराधापुर वंश का था। ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था। मंदिर परिसर में मिले शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। 1838 से 1904 ईसवी के बीच कई ब्रिटिश विद्वान और पर्यटक यहां आए थे।

प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन भी यहां आए थे। मंदिर का एक शिलालेख कोलकाता के भारतीय संग्रहालय में है। पुरात्तवविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ईसवी से 636 ईसवी के बीच का है।
इस मंदिर का उल्लेख अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी अपुनी पुस्तक में किया है। उसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कैमूर में मां मुंडेश्वरी पहाड़ी है, जहां मंदिर ध्वस्त रूप में विद्यमान है।
मां मुंडेश्वरी मंदिर को रक्तविहीन बलि दिया जाता है। शक्तिपीठ होने के बाद भी यहां एक बूंद रक्त नहीं गिरता। इस मंदिर में मां मुंडेश्वरी की प्रतिमा के सामने जो बलि दी जाती है, उसमें से एक बूंद रक्त नहीं गिरता। सिर्फ अक्षत व मंत्र से बलि पूरी हो जाती है। इस मंदिर की यह शक्ति देख हर कोई मां की महिमा का बखान करता है।

इसके अलावा, मां मुंडेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में स्थित पंचमुखी शिवलिंग की महिमा भी अपरंपरार है। इस शिवलिंग की खासियत यह है कि यदि एकाग्रचित होकर कोई श्रद्धालु देखे तो यह सुबह दोपहर और शाम में अलग-अलग रंगों में दिखेगा। मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है। मंदिर के दक्षिण में नदी है।
इस मंदिर में साल में तीन बार मेला लगता है। माघ माह के अलावा चैत्र व शारदीय नवरात्र में यहां लगने वाले मेला में बिहार सहित अन्य राज्यों से भी श्रद्धालु आते हैं। मंदिर में तांडूल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। लोग तांडूल प्रसाद अपने घर बैठे ऑनलाइन भी चढ़ा सकते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लगभग नौ साल पहले इस सुविधा की शुरुआत की थी।

मां मुंडेश्वरी मंदिर तक आने-जाने के लिए रास्ता सुगम है। रेल व सड़क मार्ग दोनों से यहां आसानी से पहुंच सकते हैं। रेल मार्ग के लिए पटना या यूपी के मुगलसराय दोनों तरफ से कोई आ सकता है। पटना से आरा या भाया गया होते हुए भभुआ रोड रेलवे स्टेशन पर उतरना होगा।
वहीं, यूपी के मुगलसराय से ट्रेन के माध्यम से चंदौली, कर्मनाशा, दुर्गावती के बाद भभुआ रोड रेलवे स्टेशन आना होगा। वहां से जिला मुख्यालय भभुआ के लिए वाहन पकड़ना होगा। वाहन से भभुआ आने के बाद मां मुंडेश्वरी मंदिर जाने के लिए हर समय वाहन है।

मां मुंडेश्वरी धाम परिसर में विकास के कई कार्य हो रहे हैं। यहां अतिक्रमण को हटा कर परिसर में पूरी तरह साफ कर दिया गया है। यहां सुंदरीकरण के लिए वन विभाग द्वारा इको पार्क का निर्माण की कवायद शुरू की गई है। रोपवे निर्माण की भी योजना है। दिल्ली की आई टीम रोपवे निर्माण को लेकर मिट्टी की जांच कर चुकी है। हालांकि, इसके बाद रोपवे का निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ सका है।

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