कोरोनाः चीन को छोड़िये, गांधीजी ने तो 160 साल पहले आनन-फानन में खोल दिया था अस्पताल, वह भी दक्षिण अफ्रीका में

दक्षिण अफ्रीका में ज्यादातर हिंदी लोग सोने, हीरे और लोहे की खदानों में काम करते थे। कुछ लोग गन्ने के खेतों में मजदूरी करते थे जो 'गिरमिट' कहलाते थे। ऐसे अधिकतर लोगों की हालत बहुत दयनीय थी। उनके रहने की बस्ती को कुली बस्ती कहा जाता था। गोरे लोग हिंदुस्तानियों को कुली डॉक्टर, कुली बैरिस्टर, कुली व्यापारी आदि कहते थे। यह अपमानित करने का उनका तरीका था।

बात सन 1904 की है। तब जोहांसबर्ग की कुली बस्ती में अचानक प्लेग फैल गया था। कुली बस्ती उस स्थान को कहा जाता था, जहां पर मजदूर भारतीयों को जबरदस्ती रखा जाता था। यह इलाका बहुत गंदा था और यहां पर साफ-सफाई का उचित प्रबंध भी नहीं था। ऐसे में अतिवृष्टि की वजह से इन बस्तियों में प्लेग फैल गया। गांधी जी के पास खबर पहुंचाई गई कि आप यहां जल्दी आइए, पूरी बस्ती संकट में है। इस बस्ती के अधिकतर मजदूर खदानों में काम करते थे। प्लेग फैलने के कारण कई मजदूर मौत के मुंह में जा चुके थे और जो लोग प्लेग से पीड़ित थे, उनकी स्थिति भी अत्यंत नाजुक थी।
परिस्थिति की गंभीरता को भांपते हुए गांधी जी फौरन कुली बस्ती में पहुंचे और वहां से तेईस रोगियों को छांटकर पास के एक खाली गोदाम में उपचार के लिए ले गए ताकि रोग अन्य लोगों में न फैल जाए। लेकिेन सुबह तक बीस रोगी चल बसे। बाद में एक और रोगी प्लेग की भेंट चढ़ गया। वहां पर आसपास कोई अस्पताल भी नहीं था। यह देखकर गांधी जी ने कुछ लोगों की मदद से एक बंद घर को खोला और इधर-उधर से कुछ कंबल और चारपाइयां लाकर उसे एक अस्पताल में तब्दील कर दिया।
तुरंत ही वहां के पड़ोसियों को एकत्र किया गया और उनसे सहायता की अपील की गई। पड़ोसियों और दुकानदारों ने धन के साथ आवश्यक सामान भी दे दिया। एक भारतीय डॉक्टर भी प्लेग के रोगियों की मदद के लिए आ पहुंचे। सारी रात बापू, डॉक्टर और अन्य स्वयंसेवक जागकर मरीजों की देखभाल में लगे रहे। कई मरीजों की हालत बिगड़ गई थी। वे मौत के मुंह में जा चुके थे। यह देखकर गांधी जी ने बचे हुए मरीजों का प्राकृतिक चिकित्सा विधि से इलाज किया।
गांधी जी को प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए देखकर अनेक लोग भी अपने प्राणों की परवाह न करते हुए उनकी मदद को आगे आए। गांधी जी के जज्बे को देखकर अनेक लोग उनके आगे नतमस्तक हो गए। सप्ताह भर में हालांकि प्लेग के प्रकोप पर नियंत्रण कर लिया गया और कई रोगी ठीक भी हो गए, लेकिेन अब एक नई समस्या खड़ी हो गई।
दरअसल स्थानीय नगरपालिका चाहती थी कि प्लेग को जड़ से मिटाने के लिए कुली बस्ती जला दी जाए। यह आवश्यक था और इसके सिवा कोई उपाय भी नहीं था। गांधी जी को भी यह बात जंच गई। उनके समझाने पर स्थानीय हिंदी लोग वहां से जाने को सहमत हो गए। उनकी जमा-पूंजी वहीं उनके झोपड़ों के नीचे दबी थी। उसे निकालकर उन्होंने गांधी जी के पास जमा करवा दिया। जब हिसाब किया गया तो वह पूंजी 60,000 पौंड से अधिक निकली। उसे गांधी जी ने बैंक में जमा करवा दिया और हिंदियों की मदद की। इन गिरमिटियों को गांधी जी के प्रयास से पहली बार स्थानांतरण के लिए हरजाना और सप्ताह भर का राशन भी मुफ्त प्राप्त हुआ। इस प्रकार गांधी जी गिरमिटियों के मसीहा बन गए।
कुष्ठ रोगियों की भी सेवा
मानव प्रेम के पुजारी बापू को रोगियों की सेवा में आनंद आता था। उन्हें रोगियों से कोई दूर नहीं रख सकता था। वास्तव में बापू के प्रेम में ऐसी शक्ति थी जो रोगियों को भी प्रसन्नचित रखती थी। साबरमती आश्रम में दमे की पुरानी बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति के चेहरे पर भी शांति रहती थी और लंबे अरसे से धीमे बुखार से पीड़ित एक महिला के चेहरे पर भी। बापू को कुष्ठ रोगियों से भी प्रेम था।
दक्षिण अफ्रीका में नेटाल भारतीय कांग्रेस के लिए धन एकत्र करना छोड़ एक जंगल में कुष्ठ रोगियों की सेवा में लग जाना बापू को जितना सहज था, उतना ही सहज था सेवाग्राम में कुष्ठ रोग से ग्रस्त एक राजनैतिक कार्यकर्ता को एक कुटी में अपने पास रखना। अपाहिज और अशांत लोगों के प्रति तो स्यात बापू का सहज स्नेह उबल पड़ता था।
जैसा कविवर 'बच्चन' ने कहा हैः बापू की छाती की हर सांस तपस्या थी, आती-जाती हल करती एक समस्या थी।
ऐसा था गांधी जी का मानव प्रेम। वास्तव में बापू प्रेम के अवतार थे और गरीबों-दुखियारों के सच्चे सेवक। आज उनके दिखाए मार्ग पर चलकर सीखा जा सकता है कि कैसे महामारी के दौर में भी मरीजों की सेवा और उनकी स्वास्थ्य की देखभाल को सर्वोपरि रखा जा सकता है।

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