राजस्थान: दर-बदर रहने वाले घूमंतु समुदाय भुगत रहे हैं लॉकडाउन का खामियाज़ा

कोरोना के चलते हुए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में घुमंतू समुदाय के कई समूह फंसे हुए हैं, न काम है न खाने पीने की कोई व्यवस्था. कुछ आम नागरिकों से मिली मदद के सहारे रह रहे इस समुदाय का कहना है कि सरकार द्वारा ग़रीबों के लिए हुई घोषणाओं में से उन्हें किसी का लाभ नहीं मिला है.

जयपुर: मध्य प्रदेश के गुना के रहने वाले 300 से ज्यादा घूमंतु समुदाय के लोग महीने भर पहले ही जैसलमेर के फतेहगढ़ क्षेत्र में जीरा कटाई के लिए आए थे.
हर साल की तरह थोड़ी मजदूरी मिलने लगी थी कि 25 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हो गई. गुना से करीब 900 किमी सफर कर मजदूरी करने आए ये लोग यहीं फंस गए.
पांच दिन जमा राशि खर्च कर मदद का इंतजार किया, लेकिन कोई सहायता नहीं मिली. आखिरकार 30 मार्च को सभी 300 लोगों ने तीन लाख रुपए में तीन बस किराये पर ली और गुना के लिए निकल गए.
इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में करीब एक हजार रुपए आने थे. मगर जिलों की सीमाएं सील होने के कारण पुलिस ने इनकी बस चित्तौड़गढ़ जिले की सीमा पर नारायणपुरा टोल प्लाजा पर ही रोक दीं.
इसके बाद इन सभी को उतारकर पुलिस ने बसों को वापस भेज दिया. पुलिस ने डांटा तो ये लोग खेतों के रास्ते पैदल चलकर थोड़ी देर बाद वापस सड़क पर इकठ्ठा हो गए.
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता पारसराम बंजारा बताते हैं, 'ये लोग फतेहगढ़ से भूखे चले थे इसीलिए सबसे पहले इनके लिए खाने की व्यवस्था की. पुलिस सख्ती से ये लोग इतने डर गए कि थोड़ी देर बाद पैदल ही गुना के लिए निकल पड़े.'
वे आगे बताते हैं, 'छोटे-छोटे बच्चों और भारी सामान के साथ ये लोग 700-800 किमी के सफर पर निकले हैं. हालांकि जहां ये लोग जा रहे हैं, वहां भी इनका स्थाई आवास नहीं है, लेकिन अपने क्षेत्र में पहुंच कर कुछ तसल्ली मिलने की उम्मीद है. मैं नहीं जानता कि यहां से निकलने के बाद वे किस स्थिति में हैं.'
पारस कहते हैं, 'पूरे देश में लॉकडाउन से सबसे प्रभावित घूमंतु समुदाय ही हो रहा है. करोड़ों परिवारों के पास न तो बैंक अकाउंट है और न ही स्थाई घर और रोजगार उपलब्ध है.अलग-अलग मौसमों में देशभर के घूमंतु एक से दूसरी जगह काम की तलाश में पलायन करते हैं. लॉकडाउन करने से पहले इन प्रवासियों के बारे में सोचा जाना चाहिए था.'
पारसराम का मानना है कि योजनाबद्ध तरीके से इन लोगों को इनके शहर-गांवों में पहुंचा दिया जाता या उसी जगह रहने का ठीक से बंदोबस्त हो जाता तो शायद ये हालात पैदा नहीं होते.
वे कहते हैं, 'लॉकडाउन में हुए पलायन से देश के अमीर-गरीब का भेद साफ दिखाई दिया है. सरकार को इंडिया बचाने की तो चिंता है, लेकिन भारत सड़कों पर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहा है और भूखा तड़प रहा है.'
मजदूरी करने गए मंदसौर के बंजारे जालौर में फंसे
फतेहगढ़ की तरह ही मध्य प्रदेश में मंदसौर के ताताखेड़ी गांव के रहने वाले बंजारे समाज के 10 लोग जालौर जिले के नींवज गांव में फंसे हुए हैं. इनके साथ दो बच्चे और दो महिलाएं भी हैं.
मजदूरों में से एक हरिसिंह ने बताया, 'एक महीने पहले बेलदारी और फसल कटाई के लिए गांव से यहां आए थे, लेकिन अब सब बंद हो गया और हम यहां फंस गए हैं. हालांकि कुछ ग्रामीण मददगारों ने हमें एक सरकारी स्कूल में रोका है और शुरूआत में कुछ दिन खाना भी दिया, लेकिन बीते दिन से हमारे पास सिर्फ चावल बचे हैं जो एकाध दिन चलेंगे.'
हरि कहते हैं, 'मंदसौर में भी हमारे पास पक्का घर नहीं है, लेकिन अपने गांव में पहुंचने पर हर तरह की परेशानियां छोटी लगने लगती हैं. सरकार ने जो मदद की घोषणाएं की हैं वे हम तक नहीं पहुंच रहीं.'
जयपुर की कच्ची बस्तियों के घूमंतु भूखे मरने को मजबूर
राजस्थान की राजधानी जयपुर में लाखों की संख्या में बेघर घूमंतु रहते हैं, जो बीते 20-30 साल में अपने गांवों से यहां आए हैं.
लॉकडाउन के कारण न तो इन्हें मजदूरी मिल रही और न ही कोई और काम. जयपुर शहर में घूमंतुओं की ऐसी करीब 17 बस्तियां हैं जहां 3,300 से ज्यादा परिवार रहते हैं.
इनमें लोहार, कालबेलिया, सपेरा, जोगी, सांसी, नट, बगेरिया, भांड़, सीकीलीगर, सिंगीवाल, बावरिया भाट और कंजर जातियों के लोग शामिल हैं.
राजस्थान सरकार की ओर से गरीबों की मदद के लिए की गई तमाम घोषणाओं में से किसी का भी फायदा इन लोगों को नहीं मिला है.
घुमंतू साझा मंच के संयोजक भैरूराम बंजारा बताते हैं, 'सरकारी मदद तो अभी तक नहीं पहुंची, लेकिन कुछ दानदाता एक-दो दिन छोड़कर खाना देने आ रहे हैं. खाने में हर बार पूड़ी और सब्जी आती है, इससे छोटे बच्चों की तबीयत भी खराब होने लगी है.'
इन्हीं बस्तियों में से एक मुंडिया रामसर बस्ती में रहने वाली प्रेम देवी बंजारा के घर में दो दिन बाद बीते शनिवार को खाना बना था. प्रेम देवी के घर में 5 बच्चे हैं. सामान्य दिनों में दोनों पति-पत्नी मजदूरी करते थे और बच्चे भीख मांगते थे.
वे कहती हैं, 'एक दिन छोड़कर खाना आ रहा है. शुक्रवार को कुछ लोग 5 किलो सूखा आटा देकर गए हैं तब जाकर 10 दिन में आज चूल्हा जला है.'
घुमंतू साझा मंच के संयोजक भैरूराम बंजारा आगे बताते हैं, 'कोई पक्का आंकड़ा तो नहीं है लेकिन जयपुर शहर और ग्रामीण में दो लाख से ज्यादा घूमंतु समुदाय के लोग रहते हैं. ये लोग लोहे के औजार बनाने, मजदूरी, पशुओं के खुर साफ करने, नाचने-गाने का काम करते हैं.'
वे आगे कहते हैं, 'अब लॉकडाउन के कारण इनके सामने आर्थिक संकट पैदा हो गया है. ज्यादातर लोगों के पास ना तो आधार कार्ड है और न ही कोई अन्य पहचान के दस्तावेज़ हैं जिससे इनको सरकारी मदद मिल सके. हमारी सरकार से अपील है कि घूमंतु समुदाय के लोगों के लिए अलग से राहत अभियान चलाया जाना चाहिए ताकि इस महामारी में इन्हें मदद मिल सके.'
बता दें कि पूरे राजस्थान में घूमंतुओं की 32 जातियां हैं और अनुमानित 60 लाख जनसंख्या है. इनके पास न तो स्थाई आवास हैं और न ही आजीविका से साधन.
राजस्थान कच्ची बस्ती महासंघ के सचिव हरिकेश बुगालिया बताते हैं, 'घुमंतू समुदाय के लोगों के पारंपरिक व्यवसाय अब ख़त्म हो गए हैं तो इन लोगों के सामने आर्थिक चुनौतियां खड़ी हो गईं और लाखों की संख्या में घुमंतू लोग शहरों-कस्बों में कच्ची बस्तियों में रहने लग गए और मजदूरी करने लगे हैं.
वे भी चाहते हैं कि सरकार अलग से इस समुदाय पर ध्यान दे. वे कहते हैं, 'अब लॉकडाउन के कारण इन्हें काम भी नहीं मिल रहा. इनके बच्चे भूख से परेशान हैं. सरकार लाखों लोगों को दान दाताओं के भरोसे नहीं छोड़ सकती. इसीलिए राजस्थान सरकार को घूमंतु समुदाय पर विशेष ध्यान देना चाहिए.'
देश में भी लॉकडाउन से सबसे प्रभावित समुदाय है घूमंतु
भीखूराम इदाते कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में घुमंतू जातियां 666 हैं. मालवाहक, पशुपालक या शिकारी, धार्मिक खेल दिखाने वाले और मनोरंजन करने वाले लोग इनमें मुख्य रूप से आते हैं.
रेनके कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 98% घुमंतू बिना जमीन के रहते हैं, 57% झोंपड़ियों में और 72% लोगों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज तक नहीं हैं. 94% घुमंतू बीपीएल श्रेणी में नहीं हैं.
पहचान के दस्तावेज और सरकारी योजनाओं तक पहुंच न होने के कारण लॉकडाउन से घूमंतु समाज बुरी तरह प्रभावित हुआ है, लेकिन इनकी समस्याएं न तो मीडिया तक पहुंच पा रही हैं और न ही राज्य या केंद्र सरकारों तक इनकी कोई सुनवाई हो पा रही है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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